New Delhi:-समलैंगिक विवाह कानूनी मान्यता देने से इनकार सही है

समलैंगिक विवाह  को कानूनी मान्यता देने से इनकार करते हुए इसे संसद के जिम्‍मे कर दिया है। हालांकि चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने ये जरूर कहा कि अपने साथी को चुनने का अधिकार सबको मिलना चाहिए।

New Delhi:-सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह  को कानूनी मान्यता देने से इनकार करते हुए इसे संसद के जिम्‍मे कर दिया है। हालांकि चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने ये जरूर कहा कि अपने साथी को चुनने का अधिकार सबको मिलना चाहिए। इसलिए सरकार समलैंगिक संबंधों को कानूनी दर्जा दे।

इस फैसले के दौरान चीफ जस्टिस ने ये भी कहा कि स्पेशल मैरिज एक्ट को सिर्फ इसलिए असंवैधानिक नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वह समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता है। लेकिन समलैंगिकों को पार्टनर चुनने का पूरा हक और अधिकार है।सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने इसी साल मई महीने में इस मामले पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इन पांच जजों की पीठ में मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस रवींद्र भट्ट, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस हिमा कोहली शामिल हैं। 

समलैंगिक विवाह यानी सेम सेक्स मैरिज मामले की सुनवाई 18 अप्रैल से शुरू हुई थी  और सुनवाई के पहले दिन ही कोर्ट ने ये साफ कर दिया था कि वे इसे पर्सनल लॉ के क्षेत्र में जाए बिना देखेंगे कि क्या साल 1954 के विशेष विवाह कानून के जरिए समलैंगिकों को शादी के अधिकार दिए जा सकते हैं।

गौरतलब है कि भारत में भले ही समलैंगिक विवाह को लेकर बहस छिड़ी हो लेकिन अमेरिका सहित दुनिया के 32 देशों में इस तरह की शादी लीगल है।इन देशों में पहला नाम है नीदरलैंड का जहां 2000 में ही सेम सेक्स मैरिज पर कानून लाया गया था। इसके बाद साल 2003 बेल्जियम में, साल 2005 में कनाडा, इसी साल स्पेन, साल 2006 में साउथ अफ्रीका, 2008 में नार्वे, स्वीडन में 2009, अर्जेंटीना में 2010, पुर्तगाल में 2010, आइसलैंड में 2010, डेनमार्क में साल 2012, उरुग्वे में साल 2013, ब्राजील में 2012, न्यूजीलैंड में साल 2013,  इंग्लैंड और वेल्स में 2013, फ्रांस में 2013, लक्जमबर्ग में 2014, स्कॉटलैंड में 2014, अमेरिका में 2015, आयरलैंड में 2015, फिनलैंड-2015, ग्रीनलैंड-2015, कोलंबिया-2016, माल्टा-2017, ऑस्ट्रेलिया-2017, जर्मनी-2017, ऑस्ट्रिया-2019 ताइवान-2019, इक्वाडोर-2019, नार्दन आयरलैंड-2019, कोस्टा रिका में साल 2020 में कानून लाया गया था।

भारत में इस बहस कि शुरुआत  साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाने का फैसला से हुई थी । इस फैसले के बाद लोगों ने समलैंगिक विवाह को कानूनी आधार देने की मांग उठानी शुरू कर दी। इस मांग को लेकर देश के अलग-अलग कोर्ट में लगभग 20 याचिकाएं दायर की गईं थी लेकिन हैदराबाद के रहने वाले गे कपल सुप्रिया चक्रवर्ती और अभय डांग की याचिका प्रमुख याचिकाओं में शामिल है।सुप्रिया चक्रवर्ती और अभय डांग दोनों ही पिछले 10 सालों से प्रेम-संबंध में हैं और इस रिश्ते को शादी के बंधन में तब्दील करने के लिए गे मैरिज को कानूनी मान्यता दिलाना चाहते हैं। इसी कपल ने साल साल 2022 में अपनी मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और याचिका दर्ज करते हुए मांग की कि देश के  LGBTQIA+ नागरिकों को भी अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने का अधिकार मिलना चाहिए। 

दायर याचिका में स्पेशल मैरिज एक्ट और हिंदू मैरिज एक्ट के प्रावधानों को भी चुनौती दी गई है। जिस पर केंद्र सरकार ने कहा कि यह मामला संसद के पाले में रहना चाहिए। जबकि याचिकाकर्ता का कहना था कि यह मामला मौलिक अधिकार से जुड़ा हुआ है और ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को मौलिक अधिकार को बचाना चाहिए।

सुप्रिया चक्रवर्ती और अभय डांग के याचिका दायर करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा। सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को लेकर देश के अलग-अलग कोर्ट से जुड़ी याचिकाओं को एक साथ जोड़ते हुए स्थानांतरित कर लिया और केंद्र सरकार से 15 फरवरी 2023 इन सभी दायर याचिकाओं पर संयुक्त जवाब दाखिल करने का आदेश दिया। इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि 13 मार्च तक इन सभी याचिकाओं को सूचीबद्ध कर दिया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए इसे ‘मौलिक मुद्दा’ बताते हुए इसे पांच जजों की संविधान पीठ को भेजने की सिफारिश की। जिसके बाद यह मामले मुख्य न्यायाधीश डॉ डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच जजों की संविधान पीठ के पास पहुंचा और इसी पीठ ने  सुनवाई करते हुए अब ये  ऐतिहासिक फैसला ले लिया है।

समलैंगिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाली एक संस्था की सह संस्थापक मीनाक्षी कहती हैं, ‘ एक LGBTQ+ समुदाय के लोगों को अपनी जिंदगी में कई तरह के कड़वे अनुभवों से गुजरना पड़ता है। इसकी शुरुआत उनके अपने घर से ही हो जाती है। उन्हें घर के अंदर ही अपनी पहचान को लेकर हिंसा और दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है। ‘सेफो फ़ार इक्ववेलिटी’ समलैंगिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाली एक संस्था की सह संस्थापक मीनाक्षी सान्याल    की एक रिपोर्ट में बताया कि भारत में अगर विवाह के अधिकार हैं, तो ये सबके लिए होना चाहिए। उन्होंने कहा कि मैं पिछले 20 सालों से एक्टिविस्ट रही हूं और हमने बहुत कुछ अनुभव किया है। अब चाहे किसी का जेंडर और सेक्शुअल ओरिेएंटेशन कुछ भी हो, हमें ये अधिकार मिलना चाहिए।”मीनाक्षी आगे कहती हैं, ‘ एक LGBTQ+ समुदाय के लोगों को अपनी जिंदगी में कई तरह के कड़वे अनुभवों से गुजरना पड़ता है। इसकी शुरुआत उनके अपने घर से ही हो जाती है। उन्हें घर के अंदर ही अपनी पहचान को लेकर हिंसा और दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है। ऐसे में अगर इस समुदाय के लोग विवाह करना चाहते हैं तो उन्हें ये हक मिलना ही चाहिए।’ 

अदालत ने स्पेशल मैरिज एक्ट को खत्म करने पर कहा कि अगर स्पेशल मैरिज एक्ट को खत्म कर दिया जाता है तो यह देश को आजादी से पहले के युग में ले जाएगा। अगर कोर्ट दूसरा दृष्टिकोण अपनाते हुए स्पेशल मैरिज एक्ट में शब्द जोड़ती है तो यह संभवतः विधायिका की भूमिका होगी।सीजेआई ने कहा कि शादी के अधिकार में संशोधन का अधिकार विधायिका के पास है लेकिन एलजीबीटीक्यू प्लस लोगों के पास पार्टनर चुनने और साथ रहने का अधिकार है और सरकार को उन्हें दिए जाने वाले अधिकारों की पहचान करनी ही चाहिए, ताकि ये कपल एक साथ बिना परेशानी के रह सकें।

बताया जाता है कि उर्मिला श्रीवास्तव और लीला नामदेव मध्य प्रदेश पुलिस फोर्स की दो महिला पुलिसकर्मी थीं, जिन्होंने साल 1987 में एक-दूसरे से शादी की थी। उनकी शादी भारत में पहला डॉक्यूमेंटेड समलैंगिक विवाह था। दोनों महिलाओं ने गंधर्व अनुष्ठान का पालन करते हुए एक छोटे से समारोह में कुछ करीबी दोस्तों और परिवार की उपस्थिति में एक-दूसरे से शादी की थी।24 फरवरी, 1988 को देश के सभी अखबारों में उनकी शादी की तस्वीरें “लेस्बियन पुलिस” शीर्षक से पहले पन्ने पर छपी थी। इन महिलाओं के एक साथी कैडेट ने उनकी शादी की तस्वीरें अपने सुपरवाईजिंग ऑफिसर को दिखाई और उस ऑफिसर ने इस शादी के खिलाफ कार्रवाई करने की ठानी। उन्होंने इन दोनों को नौकरी से निकाल दिया। जिसके कारण उर्मिला और लीला को भूखे रहने तक की नौबत का सामना करना पड़ा।इस घटना ने ही भारत में LGBTQIA+ आंदोलन को जोड़ दिया। हालांकि, उस वक्त कई लोगों का मानना था कि “पश्चिमीकरण” होने के कारण दोनों “समलैंगिक” बन गई थीं। जिसके बाद यह जोड़ा कोर्ट तो पहुंचा लेकिन लेजबियन होने का मुद्दा छोड़कर उन्होंने खुद को बर्खास्त किए जाने का मामला उठाया। उन्हें डर था कि भविष्य में उनकी आय पर खतरा मंडरा सकता है।

हाल फ़िलहाल भारत के सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने पर अपना फ़ैसला सुना दिया है। अपने फ़ैसले में कोर्ट ने कहा है कि समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने का अधिकार संसद और विधानसभाओं का: संसद और विधानसभाओं का काम है। अब समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने का काम विधानसभाओं और संसद कर सकता है यदि उसके सदस्य बहुमत के रूप में सहमत हो । वैसे सीजेआई ने कहा, संसद या राज्य विधानसभाओं को विवाह की नई संस्था बनाने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। स्पेशल मैरिज एक्ट  (SMA) को सिर्फ इसलिए असंवैधानिक नहीं ठहरा सकते क्योंकि यह समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता है। क्या SMA में बदलाव की जरूरत है, यह संसद को पता लगाना है और अदालत को विधायी क्षेत्र में प्रवेश करने में सावधानी बरतनी चाहिए। 

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