Lok Sabha Elections 2024 -कांग्रेस को कमजोर बताना विपक्ष के लिए भी घातक

Lok Sabha Elections 2024 -भारतीय जनता पार्टी तो मुख्य विपक्षी कांग्रेस को दुश्मन नंबर एक मान कर उसे खत्म करने की राजनीति कर ही रही है लेकिन आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस की सहयोगी होने का भ्रम बनाए बैठीं प्रादेशिक पार्टियां भी कांग्रेस को कमजोर करने या आम जनता की नजर मे उसे कमजोर बताने की रणनीति पर काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था और इस पर अमल करते हुए वे इतना आगे निकल कर गए हैं कि पूरी भाजपा को ही कांग्रेस युक्त बना डाल रहे हैं।
उनकी बात समझ में आती है क्योंकि अपनी सत्ता के तमाम स्थायित्व के बावजूद वे हमेशा इस बात से आशंकित रहते हैं कि कांग्रेस की वापसी हो सकती है। यह देश भले लोकतांत्रिक है लेकिन राजा और राजा के वंशजों को पूजने की परंपरा भी कहीं न कहीं जीवित है। तभी मोदी को नेहरू-गांधी परिवार की पांचवीं पीढ़ी की चिंता लगी रहती है और वे कांग्रेस को खत्म करने के साथ साथ हमेशा परिवारवाद पर हमला करते रहते हैं। उनके लिए परिवारवाद का मूल मतलब सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार है।
बहरहाल, पिछले कुछ समय से कई दूसरी पार्टियां भी कांग्रेस के कमजोर होने की धारणा बना रही हैं। वे जनता के बीच यह मैसेज दे रही हैं कि कांग्रेस भाजपा का मुकाबला नहीं कर पाएगी। उनको लग रहा है कि कांग्रेस को कमजोर बता कर उसका वोट अपनी तरफ किया जा सकता है और भाजपा के मुकाबले विपक्ष का बड़ा स्पेस हासिल किया जा सकता है। कुछ राज्यों में इस रणनीति के कामयाब होने के बाद आम आदमी पार्टी या तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां इसे देश के स्तर पर आजमा रही हैं। हालांकि उन्होंने राज्यों में की अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा है।
मिसाल के तौर पर मेघालय का जिक्र किया जा सकता है, जहां कांग्रेस 15 विधायकों की मजबूत पार्टी थी। लेकिन पश्चिम बंगाल की सत्ता और संसाधन के दम पर ममता बनर्जी ने मेघालय में कांग्रेस को तोड़ दिया और उसके नेता मुकुल संगमा सहित 14 विधायकों को अपनी पार्टी में मिला लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि पिछले साल के विधानसभा चुनाव में भाजपा के पूर्व सहयोगी कोनरेड संगमा की एनपीपी पहले से ज्यादा मजबूत हो गई। कांग्रेस का 27 फीसदी वोट कांग्रेस और तृणमूल के बीच बंट गया और कोनरेड की पार्टी को 10 फीसदी वोट का फायदा हुआ। अगर कांग्रेस नहीं टूटी होती और तृणमूल का उसके साथ तालमेल होता तो मेघालय के पिछले चुनाव में तस्वीर बदल सकती थी।

 

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आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस दोनों यही राजनीति कर रहे हैं। आप के चुनाव रणनीतिकार और राज्यसभा सांसद संदीप पाठक ने पिछले दिनों कहा कि दिल्ली में कांग्रेस का कोई भी सांसद या विधायक नहीं है और सिर्फ नौ पार्षद हैं इसलिए उसकी हैसियत लोकसभा की एक भी सीट लेने की नहीं है लेकिन आम आदमी पार्टी गठबंधन धर्म निभाते हुए उसे एक सीट देने को तैयार है। वे चुनाव रणनीतिकार हैं और यह बात इस तथ्य के बावजूद कही कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 22 फीसदी और आम आदमी पार्टी को 18 फीसदी वोट मिले थे।
यानी आप से चार फीसदी ज्यादा वोट कांग्रेस को मिले थे। फिर भी विधायक और सांसद नहीं होने के नाम पर उन्होंने कहा कि कांग्रेस की हैसियत एक भी सीट लेने की नहीं है। दूसरी ओर उन्हीं संदीप पाठक ने असम में तीन सीटों पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों की घोषणा कर दी, जहां विधायक, सांसद तो छोडि़ए आप का कोई पार्षद भी नहीं है। आप के पास एक फीसदी भी वोट नहीं है पर तीन सीटें चाहिएं लेकिन दिल्ली में कांग्रेस को 22 फीसदी वोट मिले थे और वह एक भी सीट की हकदार नहीं है!
आज हर पार्टी अगर कांग्रेस की हैसियत माप रही है तो उसके लिए कहीं न कहीं कांग्रेस खुद भी जिम्मेदार है। विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडियाÓ की तीसरी बैठक मुंबई में हुई थी तो तय हुआ था कि 31 अक्टूबर तक सभी पार्टियों के बीच सीटों का बंटवारा हो जाएगा। लेकिन कांग्रेस ने उस समय चुप्पी साध ली। कांग्रेस के नेता इस मुगालते में थे कि पांच राज्यों के चुनाव में चमत्कार होने जा रहा है और कांग्रेस तीन या चार राज्यों में जीतेगी। उसके बाद अपनी शर्तों पर सहयोगी पार्टियों से बात करेगी। लेकिन उसका यह दांव उलटा पड़ गया। वह सिर्फ एक तेलंगाना में जीत पाई और हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हार गई।
Lok Sabha Elections 2024 -उसके बाद सहयोगी पार्टियों को मौका मिल गया। हर पार्टी कांग्रेस की हैसियत बताने लगी। तृणमूल कांग्रेस ने कहा कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की हैसियत दो सीट की है और वह अगले चुनाव में पूरे देश में 40 सीट भी नहीं जीत पाएगी तो आम आदमी पार्टी ने कहा कि दिल्ली में एक भी सीट की हैसियत नहीं है। शिव सेना ने प्रदेश में कांग्रेस को अपने से छोटी पार्टी बताया तो झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने कांग्रेस को अपने से कम सीट देने की मंशा जाहिर की। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने पहले 11 और फिर 17 सीट का प्रस्ताव देकर कांग्रेस को उसकी हैसियत बता ही दी है।
लेकिन कांग्रेस को इतना कमजोर बताने की विपक्षी पार्टियों की रणनीति उनके अपने लिए भी ठीक नहीं है। ध्यान रहे देश का बड़ा वर्ग यह मानता है कि अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस ही भाजपा को टक्कर दे सकती है। यही कारण है कि 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप को 67 सीट देने वाली जनता ने 2019 के लोकसभा चुनाव में आप से ज्यादा वोट कांग्रेस को दिए। अगर यह धारणा टूटती है कि कांग्रेस इतनी कमजोर हो गई है कि वह भाजपा का किसी हाल में मुकाबला नहीं कर पाएगी तो भाजपा विरोधी मतदाताओं का एक समूह या तो भाजपा की ओर जाएगा या उदासीन होकर घर बैठेगा। उसके लिए अचानक यह मानना संभव नहीं है कि कांग्रेस नहीं लड़ पा रही है तो कोई दूसरी उससे बहुत छोटी पार्टी या कोई प्रादेशिक पार्टी भाजपा से लड़ पाएगी।
आम जनता के भीतर निराशा का भाव पैदा करने का दोष तमाम उन पार्टियों पर जाएगा, जो अपने को भाजपा विरोधी बताती हैं लेकिन कांग्रेस को कमजोर करने की राजनीति कर रही हैं। ध्यान रहे पिछले साल के चुनाव में हिंदी पट्टी के राज्यों में कांग्रेस हारी है लेकिन उसे हर राज्य में 40 फीसदी या उससे ज्यादा वोट मिले हैं। यह आगे की लड़ाई के लिए बहुत बड़ा आधार होता है। लेकिन इसका फायदा तभी होगा, जब कांग्रेस मजबूत दिखेगी और उसे दूसरी पार्टियों का समर्थन दिखेगा। लेकिन ऐसा लग रहा है कि विपक्षी पार्टियों ने भी इस आपदा को अवसर बना कर कांग्रेस को खत्म करने की सोची है। उनको सोचना चाहिए कि अगर भाजपा की योजना के पहले चरण में कांग्रेस को खत्म करना है तो दूसरे चरण में प्रादेशिक पार्टियों की बारी है। दूसरे चरण की शुरुआत हो भी चुकी है। शिव सेना या एनसीपी में टूट या जेएमएम के नेता हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी इस दूसरे चरण की राजनीति की शुरुआत है।

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