भोपाल मध्यप्रदेश के  लोगों को 3 दिसंबर की तारीख कभी नहीं भूलेगी

आज यानी 3 दिसम्बर को 4 राज्यों के साथ भोपाल मध्यप्रदेश के भी विधानसभा चुनाव के परिणाम आना शुरू हो जाएंगे । अब सभी पार्टियों के उम्मीदवारों के  साथ उनके समर्थक 3 दिसंबर का इंतजार कर रहे थे । लेकिन इसे भोपाल मध्यप्रदेश का बड़ा दुर्भाग्य कहें कि  जिस 3 दिसंबर को चुनाव परिणाम आ रहे है वह 3 दिसंबर भोपाल मध्यप्रदेश के इतिहास में सबसे खतरनाक दुखद और काला दिवस कहलाता है । 3 दिसंबर को हुई भोपाल गैस त्रासदी दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी में गिनी जाती है ।अगर उसके टक्कर की बात की जाए तो रूस में चेर्नोबिल नुक्लिअर डिजास्टर हुआ था लेकिन वह भोपाल गैस त्रासदी के सामने कुछ नहीं था। इस गैस तांडव ने हजारों लोगों को मौत की नींद में सुला दिया था व कई हजार लोग आज भी इस त्रासदी को भोग रहे जिसका पूरा विवरण हम लेख में आगे करेंगे ।   इसीलिए निर्वाचन आयोग के पास एक अर्जी पहुंची थी जिस अर्जी में  भोपाल के  चार प्रत्याशियों द्वारा चुनाव आयोग अपनी अर्जी में बताया कि था तीन दिसंबर 1984 को भोपाल में गैस त्रासदी हुई थी। इस त्रासदी में हजारों लोगों की मौत हुई थी। अब तीन दिसंबर को ही मतों की गणना है, जीतने वाले प्रत्याशी जश्न मनाएंगे, ढोल नगाड़े बजेंगे। इससे मृतक आत्माओं को कष्ट पहुंचेगा, इसलिए भोपाल की मतगणना किसी और दिन कराई जाए। पर इसे विडम्बना ही ही कहा जाएगा कि मतगणना तय तिथी 3 दिसम्बर को ही हो रही है । हर जीत वाले उम्मीदवार शायद इस तारीख को भूल जाए पर भोपाल के लोग इस तारीख को कभी नहीं भूलेंगे ।

घटनाक्रम के अनुसार 2 दिसंबर 1984 की मध्य रात  से मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की हवा जहरीली हो रही थी। रात होते ही और 3 तारीख लगते ही ये हवा जहरीली तो रही, लेकिन साथ ही जानलेवा भी हो गई। कारण था यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का लीक होना।गैस के लीक होने की वजह थी टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का पानी से मिल जाना। इससे टैंक में दबाव बन गया और वो खुल गया। फिर इससे निकली वो गैस, जिसने हजारों की जान ले ली और लाखों को विकलांग बना दिया, जिसका दंश आज भी दिखाई पड़ता है।2-3 दिसंबर की रात भोपाल के लिए वो रात थी जब हवा में मौत बह रही थी। फैक्ट्री के पास ही झुग्गी-बस्ती बनी थी, जहां काम की तलाश में दूर-दराज गांव से आकर लोग रह रहे थे। इन झुग्गी-बस्तियों में रह रहे कुछ लोगों को तो नींद में ही मौत आ गई। जब गैस धीरे-धीरे लोगों को घरों में घुसने लगी, तो लोग घबराकर बाहर आए, लेकिन यहां तो हालात और भी ज्यादा खराब थे। किसी ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया, तो कोई हांफते-हांफते ही मर गया।

इस तरह के हादसे के लिए कोई तैयार नहीं था। बताते हैं कि उस समय फैक्ट्री का अलार्म सिस्टम भी घंटों तक बंद रहा था, जबकि उसे बिना किसी देरी के ही बजना था। जैसे-जैसे रात बीत रही थी, अस्पतालों में भीड़ बढ़ती जा रही थी, लेकिन डॉक्टरों को ये मालूम नहीं था कि हुआ क्या है? और इसका इलाज कैसे करना है?उस समय किसी की आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था, तो किसी का सिर चकरा रहा था और सांस की तकलीफ तो सभी को थी। एक अनुमान के मुताबिक, सिर्फ दो दिन में ही 50 हजार से ज्यादा लोग इलाज के लिए पहुंचे थे। जबकि, कइयों की लाशें तो सड़कों पर ही पड़ी थीं।

भोपाल गैस त्रासदी की गिनती सबसे खतरनाक औद्योगिक दुर्घटना में होती है। इसमें कितनों की जान गई? कितने अपंग हो गए? इस बात का कोई सटीक आंकड़ा नहीं है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना में 3,787 लोगों की मौत हुई थी, जबकि 5।74 लाख से ज्यादा लोग घायल या अपंग हुए थे। दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट में पेश किए गए एक आंकड़े में बताया गया है कि दुर्घटना ने 15,724 लोगों की जान ले ली थी।इस हादसे का मुख्य आरोपी था वॉरेन एंडरसन, जो इस कंपनी का CEO था। 6 दिसंबर 1984 को एंडरसन को गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन अगले ही दिन 7 दिसंबर को उन्हें सरकारी विमान से दिल्ली भेजा गया और वहां से वो अमेरिका चले गए। इसके बाद एंडरसन कभी भारत लौटकर नहीं आए। कोर्ट ने उन्हें फरार घोषित कर दिया था। 29 सितंबर 2014 को फ्लोरिडा के वीरो बीच पर 93 साल की उम्र में एंडरसन का निधन हो गया।गैस लीक होने के 8 घंटे बाद भोपाल को जहरीली गैस के असर से मुक्त मान लिया गया था, लेकिन 1984 में हुई इस दुर्घटना से मिले जख्म 38 साल बाद भी भरे नहीं हैं।

39  वर्ष बाद भी न भरने वाले कुछ दर्दों के उदहारण में 65 वर्ष की राबिया खान भोपाल की नवाब कालोनी में रहती हैं। वह बताती हैं कि गैस कांड में उनके पति यूनुस खान और वह परेशान हो गए थे। तब किसी तरह जान बची थी। 15 दिनों तक उन्हें कुछ याद नहीं था, आंखों में दिखाई भी नहीं दे रहा था। तब से लेकर अब तक वह इलाज के दम पर जीवन-यापन कर रहे हैं। 15 वर्ष पूर्व उनके पति का निधन हो चुका है। तीन वर्ष का उनका नाती बाबर दिव्यांग है, जिसका इलाज कराने के लिए वह इंदौर, मुंबई जैसे शहरों का चक्कर लगा चुके हैं लेकिन वह ठीक नहीं हो रहा है।यूनियन कार्बाइड कारखाना के पास जेपी नगर है, गैस के रिसाव से यहां के लोग सबसे अधिक प्रभावित हुए थे। इन्हीं में 90 वर्ष की लीला बाई है, जिन्होंने गैस कांड के कुछ वर्ष बाद अपने पति प्रताप सिंह को खो दिया था। वह कहती हैं इसके बाद उनका घर किसी तरह चल रहा है। वह स्वयं पेंशन के रुपयों से गुजार रही हैं। जेपी नगर के कई परिवार आज भी उन्ही मकानों में रहते हैं, जिनमें हादसे के समय रहते थे। यहीं पर शकीला बी भी रहती हैं, वह भी अपने पति बाबू खां को खो चुकी हैं। दोनों को हर 15 दिन में इलाज कराने के लिए अस्पताल के चक्कर लगाने पड़ते हैं।भोपाल गैस पीड़ित महिला स्टेशनरी कर्मचारी संघ की रशीदा बी का कहना है कि गैस पीड़ित भी वास्तविक नुकसान पर तथ्यों के साथ सुनवाई चाहते हैं। जिसमें केंद्र सरकार को ही तथ्य पेश करने हैं। वह दावा करती हैं कि पीड़ितों को तत्कालीन समय में 25 हजार से लेकर 10 लाख रुपये किस्तों में बतौर मुआवजा दिया गया, जो नुकसान से बहुत कम है। गैस पीड़ित संगठन की रचना ढींगरा व बालकृष्ण नामदेव त्रासदी में हुए नुकसान को स्थायी मानने और उस अनुरूप मुआवजा देने की बात कह रहे हैं।

एक तो करेला ऊपर से नीमचढ़ा  कि कहावत यहाँ भी लागू हो गई । कोविड-19 संक्रमण का भी  असर सामान्य आबादी के मुकाबले गैस पीड़ितों में कई गुना ज्यादा पड़ा  था  । भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉर्मेशन एंड एक्शन   की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भोपाल में कोविड-19 से जान गंवाने वाले लोगों में 75 फीसदी गैस पीड़ित थे । भोपाल जिले की यह कोरोना से बीएमएचआरसी कोरोना से मृत गैस पीड़ितों के आंकड़े कम करके बता रहा है  । डॉक्टर कहते हैं गैस पीड़ितों की इम्युनिटी यानी शारीरिक क्षमता कम होने की वजह वे तेजी से कोरोना वायरस के शिकार हुए, जिसके कारण उनकी मौत हुई  । गांधी मेडिकल कॉलेज के डॉ । लोकेंद्र दवे का कहना है कि यूनियन कार्बाइड से निकली जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस की वजह से इन लोगों के फेफड़े कमजोर हो गए थे , इसलिए कोरोना वायरस उन पर तेजी से अटैक करता है । मौतों की संख्या इसलिए गैस पीड़तों की ज्यादा है, क्योंकि उनकी रोगों से लड़ने की क्षमता बेहद कमजोर हो चुकी है ।

1989 में मप्र सरकार ने गैस राहत एवं पुनर्वास विभाग का गठन किया था । इसके बाद बीएचएमआरसी समेत 6 गैस राहत अस्पताल बनाए गए, लेकिन इन अस्पतालों में न डॉक्टर हैं, न संसाधन । गैस पीड़ितों के लिए बने सबसे बड़े और एकमात्र सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल बीएमएचआरसी के हाल ये हैं, कि यहां कई विशेषज्ञ डॉक्टर नौकरी छोड़ कर निजी अस्पतालों में ऊंची तनख्वाहों पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं । बार-बार विभाग बदलने और डॉक्टरों के सेवा नियमों में बदलाव के चलते यहां से डॉक्टरों का 2012 से पलायन शुरू हो गया था । अब तक नियमित और संविदा मिलाकर 23 सुपर स्पेशलिस्ट यहां से जा चुके हैं । 1998 में बने इस अस्पताल को बनाने के पीछे मकसद था कि गैस पीड़ितों को सबसे अच्छा इलाज मिलेगा, लेकिन हकीकत यह है कि कैंसर सर्जरी, कैंसर मेडिसिन, किडनी रोग, यूरोलाजी और उदर विभागों में तो एक भी डॉक्टर नहीं है । किडनी मरीजों की डायलिसिस की जा रही है, लेकिन किडनी का कोई विशेषज्ञ नहीं है । अस्पताल में करोड़ों रुपए की मशीनें खरीद ली गयीं, पर चलाने वाले ही नहीं हैं । भोपाल ग्रुप फॉर इनफॉरमेशन एंड एक्शन की रचना ढींगरा का कहना है कि बीएमएचआरसी में न तो डॉक्टर हैं और न ही जांच और इलाज की पर्याप्त सुविधाएं । जिस अस्पताल का काम गैस पीड़ितों का सही इलाज और शोध करना था, वहां गैस पीड़ित इलाज और दवा के अभाव में असमय मर रहे हैं ।

गैस पीड़ितों के हाल इससे ही समझे जा सकते हैं कि उनके अस्पताल, इलाज, मुआवजे के लिए सड़क से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लंबी लड़ाई लड़ऩे वाले गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के नेता अब्दुल जब्बार को ही समय पर इलाज नहीं मिल पाया । पिछले साल समय पर बीएमएचआरसी में बेहतर इलाज न मिलने के कारण उनकी मौत हो गई । उसी बीएमएचआरसी में जो गैस पीड़ितों के लिए ही बना है । जब्बार देश-विदेश में गैस पीड़ितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों का प्रमुख चेहरा थे ।गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठन संभावना ट्रस्ट ने मीडिया को अपने अध्ययन के हवाले से बताया कि बीते 15 साल में गैस पीड़ितों में बीमारियां 3 गुना ज्यादा बढ़ी हैं । गैस पीड़ितों में किडनी, लिवर, लंग्स, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर जैसी तमाम बीमारियां बढ़ गई हैं । ट्रस्ट के सतीनाथ षडंगी और संभावना क्लीनिक के डा । संजय श्रीवास्तव ने 15 साल में 27 हजार 155 गैस पीड़ितों के इलाज के दौरान सामने आये आंकड़ों के आधार पर ये दावा किया । उन्होंने अपने विश्लेषण में पाया है कि यूनियन कार्बाइड की जहरीली गैस से पीड़ित लोगों में स्वस्थ लोगों की तुलना में वजन और मोटापे की समस्या 3 गुना ज्यादा है । इसके अलावा थायराइड की बीमारी की दर लगभग 2 गुना ज्यादा है । गैस त्रासदी के शिकार होने की वजह से पीड़ितों के शरीर के अंदरूनी और बाहरी तंत्र को स्थाई रूप से नुकसान पहुंचा है ।

39   साल पहले हुई इस गैस त्रासदी ने कई महिलाओं की कोख को आबाद नहीं होने दिया । जहरीले रसायन का असर ऐसा था कि बार-बार महिलाओं का गर्भपात हो जाता था । यह बात कई शोधों, अध्ययनों और सर्वे रिपोर्ट्स के माध्यम से जाहिर हो चुकी है । सन् 2012 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी यूनियन कार्बाइड कारखाने में दफन जहरीला रासायनिक कचरा राज्य की सरकारें हटवाने में आज तक नाकाम रहीं । सुप्रीम कोर्ट का आदेश था कि वैज्ञानिक तरीके से कचरे का निष्पादन किया जाए, लेकिन कारखाने में दफन 346 टन जहरीले कचरे में से 2015 तक केवल एक टन कचरे को हटाया जा सका । इस काम का ठेका रामको इन्वायरो नामक कंपनी को दिया गया है । लेकिन कचरा अभी तक क्यों नहीं हटाया जा सका, इसका जवाब किसी के पास नहीं है । इस कचरे के कारण यूनियन कार्बाइड के आसपास की 42 से ज्यादा बस्तियों का भूजल जहरीला हो चुका है । पानी पीने लायक नहीं है, लेकिन किसी को फिक्र नहीं है । गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठन संभावना ट्रस्ट के प्रबंधक, न्यासी सतीनाथ षडंगी ने 1 दिसंबर मंगलवार को त्रासदी की 36वीं बरसी की पूर्व संध्या पर दावा किया कि परिसर में पड़े जहरीले कचरे का दुष्प्रभाव भोपाल रेलवे स्टेशन तक पहुंच गया है । यूनियन कार्बाइड कारखाने और स्टेशन की दूरी डेढ़ से दो किलोमीटर है । दो साल पहले तक जहरीले कचरे से आसपास की 48 बस्तियों के भूमिगत जल स्त्रोत प्रभावित हुए थे । लेकिन इसका भूमिगत दायरा बढ़कर भोपाल स्टेशन तक जा पहुंचा है । इससे उन रहवासियों के लिए दिक्कतें होंगी, जो इस इलाके के भूमिगत जल स्त्रोतों का उपयोग करते हैं ।

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केंद्र सरकार ने वर्ष 2010 में सुधार याचिका लगाई थी, जो पांच न्यायाधीश वाली संविधान पीठ के पास है। इस पर विगत 11 अक्टूबर को हुई सुनवाई में केंद्र सरकार की ओर से जनवरी 2023 में होने वाली सुनवाई में तथ्यों के साथ बहस करने का भरोसा दिया है। दुनिया की बड़ी औद्योगिक त्रासदी में शामिल भोपाल गैस कांड पर सुप्रीम कोर्ट में 38 वर्ष बाद शुरू हुई सुधार याचिका पर सुनवाई ने गैस पीड़ितों में न्याय की उम्मीद जगा दी है। दो व तीन दिसंबर 1984 की दरमियानी रात हुई इस त्रासदी में हजारों परिवारों ने अपना सब कुछ दिया था । इन परिवारों की अब तीसरी पीढ़ी भी त्रासदी का दंश झेलने का मजबूर है। सरकार ने गैस पीड़ितों के लिए स्वास्थ्य से लेकर तमाम सुविधाएं समय-समय पर मुहैया कराने के प्रयास किए, लेकिन लचर व्यवस्था के चलते प्रयास नाकाफी रहे। ज्यादातर पीड़ित परिवारों के पास रोजगार के साधन नहीं हैं। ये रोज कमाते हैं और रोज खाते हैं। त्रासदी के बाद पीड़ितों को दिए गए मुआवजे को गैस पीड़ित संगठन नाकाफी बताते रहे और उनकी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई।

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