
White Collar Terror Module. दिल्ली में लाल किले के पास सोमवार को हुए धमाके में अब तक 13 लोगों की मौत हो चुकी है। इस विस्फोट ने एक बार फिर उस ख़तरनाक प्रवृत्ति को उजागर कर दिया है, जिसे सुरक्षा एजेंसियाँ व्हाइट कॉलर टेरर मॉड्यूल कहती हैं यानी ऐसे आतंकवादी जो बंदूक नहीं, बल्कि अपनी शिक्षा, तकनीकी ज्ञान और सामाजिक हैसियत के जरिए आतंकी साजिशों को अंजाम देते हैं।
दरअसल, जांच एजेंसियों के अनुसार 2001 से 2025 के बीच देश में 36 से अधिक ऐसी घटनाएँ सामने आई हैं जिनमें डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर और पत्रकार जैसे पेशेवर आतंक की साजिशों में शामिल पाए गए। ये लोग सीधे आतंकी कार्रवाई में शामिल न होकर तकनीकी, आर्थिक या वैचारिक मदद पहुंचाते हैं।
ताज़ा मामला फरीदाबाद की अल-फलाह यूनिवर्सिटी से जुड़ा है, जहाँ के प्रोफेसर डॉ. मुजम्मिल शकील को जम्मू-कश्मीर पुलिस ने गिरफ्तार किया है। उनके किराए के मकान से लगभग 360 किलो अमोनियम नाइट्रेट बरामद हुआ। उनके साथ डॉक्टर शाहीन शाहिद को भी पकड़ा गया है, जिनकी कार से एके-47 राइफल मिली। शाहीन के जैश-ए-मोहम्मद और अंसार गजवत-उल-हिंद जैसे संगठनों से संबंध बताए जा रहे हैं।
इन्हें भी किया जा चुका अरेस्ट
इसी तरह यूपी के सहारनपुर से डॉ. आदिल अहमद को गिरफ्तार किया गया, जो पहले अनंतनाग मेडिकल कॉलेज में सीनियर रेजिडेंट रह चुका था। उस पर जैश नेटवर्क को दोबारा सक्रिय करने का आरोप है। अगस्त 2025 में यूपी एटीएस ने डॉ. उसामा माज शेख और अजमल अली को गिरफ्तार किया था, जो ‘गजवा-ए-हिंद’ योजना से जुड़े थे।
2024 में गिरफ्तार मनोचिकित्सक डॉ. तालिब ए. और डॉ. इश्तियाक जैसे नाम दिखाते हैं कि आतंक का यह चेहरा कितना शिक्षित और संगठित हो चुका है। वहीं कर्नाटक का डॉ. मोटू 2012 की आतंकी साजिश में शामिल था। पुणे से डॉ. अदनान अली की गिरफ्तारी भी इसी श्रेणी में आती है।
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इतिहास देखें तो 2001 के संसद हमले का साजिशकर्ता अफजल गुरु एमबीबीएस था। बाद में कई इंजीनियर जैसे रियाज भटकल, खालिद शेख, ओसामा बिन लादेन और सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल मंसूर असगर पीरभॉय ने आतंक को तकनीकी रूप दिया। पत्रकार अहलम तमीमी, पीएचडी स्कॉलर मन्नान बशीर वानी और प्रोफेसर मोहम्मद रफीक जैसे उदाहरण बताते हैं कि शिक्षा और बुद्धिमत्ता का दुरुपयोग कितना विनाशकारी हो सकता है।
व्हाइट कॉलर टेरर मॉड्यूल आज सबसे बड़ी चुनौती
सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार, व्हाइट कॉलर टेरर मॉड्यूल आज सबसे बड़ी चुनौती है, क्योंकि यह आतंक के वैचारिक और डिजिटल ढांचे को मजबूत करता है। ऐसे लोग न केवल युवाओं को गुमराह करते हैं, बल्कि टेक्नोलॉजी, साइबर नेटवर्क और वित्तीय चैनलों के ज़रिए आतंकवाद को नई दिशा देते हैं।



