
UP News. दीपावली की रौनक के बीच लखनऊ के ऐतिहासिक काकोरी कस्बे में 65 वर्षीय दलित रामपाल के लिए त्योहार अपमान का अंधेरा बन गया। शीतला माता मंदिर के सामने रहने वाले मूत्र समस्या से पीड़ित रामपाल को स्थानीय दुकानदार स्वामीकांत उर्फ पम्मू ने मंदिर की सीढ़ियों से मूत्र चाटने के लिए मजबूर किया। गलती से सीढ़ी गंदी करने पर उसे मारा-पीटा गया और ‘शुद्धिकरण’ के नाम पर अपमानित किया गया। डर से कांपते रामपाल ने वैसा ही किया। घटना के बाद पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया और एससी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया।
यह घटना केवल एक व्यक्ति के अपमान की कहानी नहीं, बल्कि उस सामाजिक सच्चाई का आईना है, जो आज भी दलितों को समान इंसान मानने से इंकार करती है। इसी महीने 2 अक्तूबर को रायबरेली के ऊंचाहार इलाके में 28 वर्षीय दलित युवक हरिओम वाल्मीकि को ‘ड्रोन चोर’ बताकर भीड़ ने नंगा कर पीट-पीटकर मार डाला। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घटना के दस दिन बाद परिजनों से मुलाकात की और पत्नी को सरकारी नौकरी, मकान व अन्य सहायता देने की घोषणा की। वहीं, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 17 अक्तूबर को फतेहपुर पहुंचकर पीड़ित परिवार से मुलाकात की और सरकार पर ‘दलितों को केवल वोट बैंक समझने’ का आरोप लगाया।
15 अक्तूबर को ग्रेटर नोएडा के रबूपुरा क्षेत्र में 22 वर्षीय दलित युवक अनिकेत जाटव की पिटाई के दस दिन बाद मौत हो गई। परिवार का कहना है कि ऊंची जाति के युवकों से विवाद के बाद उसे लगातार धमकियां मिल रही थीं। पुलिस ने बाद में हत्या और एससी-एसटी ऐक्ट की धाराएं जोड़ीं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक, 2023 में सिर्फ उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचार के 13,146 मामले दर्ज हुए, जो देशभर के ऐसे मामलों का लगभग एक-चौथाई हैं। दलित अधिकार कार्यकर्ता मनोज पासवान के अनुसार, असली संख्या इससे कहीं अधिक है, क्योंकि गांवों में डर और दबाव के कारण शिकायतें दर्ज ही नहीं होतीं।
राजनीतिक रूप से इन घटनाओं ने भाजपा सरकार के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। विपक्ष दलित असंतोष को सियासी मुद्दा बना रहा है। कांग्रेस और सपा दोनों दल इसे ‘समानता और सम्मान’ की लड़ाई बता रहे हैं। वहीं, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एससी-एसटी मामलों में सात दिन के भीतर चार्जशीट दाखिल करने और दोषियों को सख्त सजा देने के निर्देश दिए हैं। सरकार ने पूर्व आईपीएस और मंत्री असीम अरुण को दलित इलाकों में जनसंपर्क अभियान का दायित्व भी सौंपा है।
विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा के दलित चेहरे समाज में पर्याप्त असर नहीं छोड़ पा रहे। दलितों के बीच सम्मान की राजनीति अब भावनात्मक नहीं, बल्कि निर्णायक मुद्दा बनती जा रही है। बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अजय कुमार कहते हैं, अगर दलितों में अपमान और असुरक्षा का भाव बढ़ता गया तो भाजपा की ‘सबका साथ’ वाली छवि को नुकसान होगा।
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मानवाधिकार कार्यकर्ता शैलेंद्र सिंह चौहान का कहना है कि ज्यादातर मामलों में पुलिस दबाव में रहती है, जिससे गवाह पलट जाते हैं और केस कमजोर हो जाते हैं। काकोरी का मामला भी मीडिया दबाव के बाद ही दर्ज हुआ।
दलित संगठनों ने सरकार से विशेष निगरानी प्रकोष्ठ बनाने की मांग की है, जो सीधे मुख्यमंत्री कार्यालय को रिपोर्ट करे। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि सरकार यह कदम उठाती है तो यह प्रशासनिक ही नहीं, बल्कि नैतिक जीत भी होगी।
उत्तर प्रदेश में लगातार सामने आ रही ऐसी घटनाएं बताती हैं कि कानून लागू हो सकता है, लेकिन समाज की सोच अब भी नहीं बदली है। जब तक रामपाल और हरिओम जैसे लोगों के दर्द को सिर्फ ‘घटना’ समझा जाएगा, तब तक समानता संविधान की किताबों में रहेगी, समाज में नहीं।


