Rajasthan: गांव-गरीब, किसान-मजदूर की आवाज बुलंद करने के लिए चौखम्भा राज की संकल्पना

Rajasthan: समाजवादी चिंतक और स्वतंत्रता सेनानी डॉ. राममनोहर लोहिया की पुण्यतिथि 12 अक्टूबर को मनाई जाती है। उनका चिंतन था कि हर पांच साल में यदि सरकार ठीक काम नहीं कर रही है तो उसे बदल देनी चाहिए। इसके बारे में तर्क देते हुए कहते थे कि जिस प्रकार हम रोटी की एक तरफ से सिकाई करेंगे तो वह जल जाएगी। रोटी को दोनों तरफ से सिकाई करेंगे, तब ही रोटी खाने योग्य बन सकेगी। इसी प्रकार हमें भी सही काम नहीं करने वाली सरकार को पांच साल में बदल कर उनके कार्यों की समीक्षा करनी चाहिए।

उन्होंने गांव, गरीब, किसान, मजदूर की आवाज को बुलंद करने के लिए चौखम्भा राज की संकल्पना दी। चौखम्भा राज योजना की स्थापना के लिए संघर्ष कर डॉ. लोहिया ने महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज्य के स्वप्न को साकार करने का भी प्रयास किया। डॉ. लोहिया सबके लिए सम्मानजनक जीवन का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते थे। उपभोगवाद, पूंजीवाद और साम्यवादी मूल्य का वे विरोध करते थे, लेकिन साधु-महात्माओं की तरह लंगोटी पहन कर रहें, यह भी उन्हें पसंद नहीं था। चौखम्भा राज की कल्पना सारी राज्य-व्यवस्था को चार स्तरों पर विकेंद्रित करने की थी। वे कहा करते थे कि गांवों की पंचायतें देश की संसद का स्थान लें। चौखम्भा राज में भारतीय परिवेश, भारतीय संस्कार, भारतीय परम्परा को बनाए रखेगा। उनका चिंतन था कि राज्य की शक्ति तोड़कर केन्द्र और प्रांत के अलावा, जिले और गांव में बांट दी जानी चाहिए । केन्द्र और प्रांत में उतनी शक्ति रहे, जितनी आवश्यक हो, जैसे पलटन केन्द्र में और हथियार बंद पुलिस प्रांत में और जहां तक संभव हो अधिक से अधिक शक्ति जिला और गांव में रहे। पुलिस जिले में और सारे विकास कार्य गांव में।

चौखम्भा राज साम्यवादी तानाशाही का जवाब था। ‘राज लक्ष्मी’ जो अभी केन्द्र और प्रांतों तक ही सीमित थी, उसे जिले और गांव में ले जाकर बिठाया जाए। चौखम्भा राज ‘ग्राम स्वराज’ का पर्याय नहीं है। पुरानी पंचायत व्यवस्था के चलते गांवों में जड़ताएं बनी रहेंगी। उन्हें सादगी के नाम पर निर्धनता का महिमामंडन भी पसंद नहीं था। डॉ.लोहिया का कहना था कि चौखम्भा राज में केन्द्र के पास जो राजस्व इकट्ठा होता है, उसका एक भाग ग्राम को, दूसरा भाग जिले के पास, तीसरा भाग प्रांत को और चौथा भाग केन्द्र को प्राप्त होना चाहिए। ताकि प्रत्येक इकाई अपने-अपने कार्यों का सही ढंग से सम्पादन कर सके। उनका मत था कि चौखम्भा राज क्षेत्रवाद और गुटबंदी के मुद्दों से परे होगा। यह एक ऐसी संरचना है, जिसमें सरकार या समाज के किसी गुट को संकीर्ण स्वार्थ का मौका नहीं मिलेगा, क्योंकि यह ऐसा प्रारूप प्रस्तुत करता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति, किसी भी स्तर पर गुटबंदी द्वारा की जाने वाली शक्ति जन संगठनों में बिखरी हुई होती है, जहां प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक प्रमुख भूमिका होती है। अतः गुटबंदी का प्रश्न नहीं उठता।

लोहिया के मत में चौखम्भा राज जनता की अकर्मण्यता समाप्त कर भ्रष्ट व बोझिल व्यवस्था से उसको मुक्त करता है। यह राज्य जनतंत्र की रूपरेखा में हमदर्दी और बराबरी का रंग भरता है। उनका मत था कि प्रत्येक सामान्य जन को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक ढंग से सबल बनाए जाने से चौखम्भा राज की कल्पना साकार हो सकती है। समग्र दर्शन सामान्य जन के सर्वांगीण विकास की ओर उन्मुख है। वर्तमान पंचायत प्रणाली औपचारिक विकेन्द्रीकरण है। इसमें सत्ता और साधनों का वास्तविक विकेन्द्रीकरण नहीं होता। पंचायतों के चुनाव होते हैं और उन्हें कुछ पूंजी साधन भी उपलब्ध कराए जाते हैं। लेकिन हकीकत में गांवों के हर कार्यकलाप पर केन्द्रीकृत नौकरशाही तंत्र का नियंत्रण बना रहता है।

विकेन्द्रीकरण एक जीवन दर्शन है।केन्द्र, राज्य, जिला और ग्राम स्तर पर स्वायत्ता को लाया जाना जरूरी है। जिला पंचायत, पंचायत समिति और ग्राम पंचायत की हैसियत यदि केन्द्रीकृत नौकरशाही की आज्ञाओं का पालन करना ही होगा। उनमें स्वायत्तता की भावना नहीं आएगी। सत्ता के सही जन प्रतिनिधि संस्थाओं के अधीन बनाना पड़ेगा। ग्राम सभाओं को इतने अधिकार देने पड़ेंगे कि वे पंचायतों पर गैर सरकारी अमले पर नियंत्रण रख सकें। जिस प्रकार केन्द्र सरकार संसद के प्रति जवाबदेह और राज्य सरकार विधानसभा के प्रति जवाबदेह है। उसी प्रकार जिला और ग्राम स्तर की कार्यपालिकाएं (जिला परिषद, पंचायत समितियां और ग्राम पंचायतें) जनता की मिनी असंबेलियों अर्थात ग्राम सभाओं के आगे जवाबदेह होनी चाहिए। इन मिनी असंबेलियों को इतना अधिकार देने चाहिए कि वे कार्यपालिकाओं को अविश्वास प्रस्ताव पास कर भंग कर सकें और सरकारी तंत्र पर अपनी इच्छा को लागू कर सकें।

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चौखम्भा राज के विकेन्द्रीकरण में सत्ता के सभी रूपों का विकेन्द्रीकरण निहित है। इस चौखम्भा राज में आम-आदमी, साधारण से साधारण आदमी भी अपने बारे में और समाज के भविष्य के बारे में निर्णय लेने में सक्षम है। उसमें बुद्धि-विवेक है, निर्णायक क्षमता है और वह सामूहिक निर्माण और प्रगति में अपनी भूमिका निभा सकता है। वे कहा करते थे कि दिल्ली के सत्ताधारी, गांवों के दुख, दर्द नहीं समझ सकते। वह तो गांव के लोग ही समझेंगे। गांव के विकास के लिए योजना स्वयं गांव के लोग ही बनाएं, उन्हें योजना के लिए पैसा दे दिया जाना चाहिए। इसी से गांव का विकास हो सकता है। जिस तरह कुर्सी चार पांव पर खड़ी रहती है, अगर एक भी पांव कमजोर हो तो कुर्सी पर ढंग से बैठ नहीं सकते, उसी तरह सत्ता भी केन्द्र, राज्य, जिले और पंचायत स्तर पर अपने-अपने क्षेत्र और कार्यक्रम सौंप दिए जाएं, इसी से देश का चहुंमुखी विकास होगा।

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