
Prayagraj News-इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आदेश पारित होने के बाद भी लगातार बहस करने और अदालती कार्यवाही में व्यवधान डालने वाले एक अधिवक्ता के व्यवहार की निंदा की है। कोर्ट ने कहा कि वकीलों की भूमिका दोहरी होती है — एक ओर वे अपने मुवक्किलों के हितों का निष्ठापूर्वक प्रतिनिधित्व करें, वहीं दूसरी ओर न्यायालय कक्ष में सम्मानजनक और अनुशासित वातावरण बनाए रखना भी उनका दायित्व है।
न्यायमूर्ति कृष्ण पहल की एकल पीठ ने हमीरपुर निवासी नरेंद्र सिंह की दूसरी जमानत अर्जी खारिज करते हुए यह टिप्पणी की। आरोपी के खिलाफ थाना मझगवां में यौन उत्पीड़न का मुकदमा दर्ज है और वह जनवरी 2025 से जेल में बंद है।
अभियुक्त के अधिवक्ता ने एफआईआर दर्ज करने में हुई नौ दिन की देरी, पीड़िता की आयु और चिकित्सकीय पुष्टि न होने का हवाला देते हुए जमानत पर जोर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि चार मामलों में से अन्य में जमानत मिल चुकी है। वहीं, एजीए ने जमानत का विरोध करते हुए कहा कि अभियुक्त के आपराधिक इतिहास की अधिवक्ता द्वारा समुचित व्याख्या नहीं की गई।
कोर्ट ने माना कि जमानत का आधार पर्याप्त नहीं है और आवेदन खारिज कर दिया। लेकिन आदेश पारित होने के बाद भी अधिवक्ता लगातार बहस करते रहे और कार्यवाही में बाधा डाली। इस पर कोर्ट ने कहा कि ऐसा आचरण न्यायिक प्रक्रिया की गरिमा को कमज़ोर करता है और आपराधिक अवमानना की श्रेणी में आता है। हालांकि अदालत ने अवमानना कार्यवाही शुरू करने से परहेज़ किया, लेकिन अधिवक्ता के रवैये को निंदनीय बताया।
न्यायमूर्ति पहल ने दोहराया कि वकीलों को अदालत की सहायता करनी चाहिए, न कि कार्यवाही में हस्तक्षेप। उन्होंने पहले भी टिप्पणी की थी कि सूचीबद्ध मामलों में अधिवक्ताओं का अनुपस्थित रहना व्यावसायिक कदाचार तथा बेंच हंटिंग या फोरम शॉपिंग जैसा है।
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रिपोर्ट: राजेश मिश्रा प्रयागराज