New Delhi: दिल्ली विधानसभा चुनाव फरवरी में हो सकते हैं और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल चुनाव से पहले जनता को लुभाने के लिए कई बड़े गिफ्ट्स लेकर आए हैं। चुनाव को लेकर सभी पार्टियों ने तैयारी तेज कर दी है लेकिन केजरीवाल धड़ाधड़ बड़े बड़े ऐलान करते जा रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में आम आदमी पार्टी के संयोजक केजरीवाल ने दिल्लीवालों को खुश करने के लिए कई बड़े ऐलान किए हैं। लंबे समय से दिल्ली की सत्ता संभालने वाले केजरीवाल और उनकी पार्टी आप के लिए यह विधानसभा चुनाव कई मायनो में खास है क्योंकि केजरीवाल हर हाल में अपनी जीत को बरकरार रखना चाहते हैं।
केजरीवाल ने पिछले कुछ दिनों में पांच बड़ा ऐलान किया है। इसमें महिलाओं के लिए 2100 रुपये महीना, संजीवनी योजना के तहत 60 साल से ज्यादा उम्र के लोगों का फ्री इलाज, बुजर्गों के लिए पेंशन स्कीम, 24 घंटे दिल्लीवासियों को साफ पानी और पुजारियों और ग्रंथियों के लिए सैलरी का भी ऐलान शामिल है। केजरीवाल के इन वादों को आप के नेता मास्टरस्ट्रोक बता रहे हैं तो वहीं भाजपा इसको लेकर हमलावर है। भाजपा इन वादों को दिल्लीवालों के लिए धोखा बता रही है। भाजपा का कहना है कि केजरीवाल सिर्फ लोगों से झूठा वादा कर रहे हैं और करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल करके मुफ्त सुविधाएं (मुफ्त रेवड़ियां) दी जा रही हैं और यह देश को “दिवालियेपन” की ओर धकेल सकती हैं। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया इसके पहले ही इस बात के लिए चेतावनी भी दे चुकी है ।
अब रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने मुफ्त की रेवड़ी बांटने वाले राज्यों को एक बार फिर चेतावनी दी है। भारतीय रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट में राज्यों को चेतावनी देते हुए कहा गया है कि कृषि ऋण माफी, मुफ्त बिजली एवं परिवहन जैसी छूट देने से सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे के लिए उनके महत्वपूर्ण संसाधन खत्म हो सकते हैं।
कुछ समय पूर्व स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि मुफ्त का ‘रेवड़ी कल्चर’ देश के लिए बहुत घातक है। उन्होंने इस पर जोर दिया था कि देश के विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली सभी बातों से दूर रहने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री का इशारा चुनाव के समय राजनीतिक दलों की ओर से मतदाताओं को लुभाने के तरह-तरह के तरीकों की ओर था। अब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इसी तरह की टिप्पणी की है। एक याचिका पर सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने कहा कि नीति आयोग, वित्त आयोग, सत्ताधारी दल और विपक्षी पार्टियों, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और अन्य संस्थाओं को भी इस मामले में सुझाव देने चाहिए कि आखिर इस ‘रेवड़ी कल्चर’ को कैसे रोका जा सकता है। सवाल है कि देश के चुने हुए सर्वोच्च प्रतिनिधि से लेकर सबसे बड़ी अदालत तक इस कल्चर से क्षुब्ध क्यों है?
सामान्य तौर पर हम सीधे कह सकते हैं कि सरकारें मुफ्त का कुछ भी नहीं देतीं। हमारा-आपका दिया हुआ टैक्स ही सरकारों के खर्चे के काम आता है। उसका एक बड़ा हिस्सा देश के लोगों पर खर्च कर सरकारें गलत कहां करती हैं? आखिर लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना भी तो यही है। हालांकि यहां थोड़ा रुककर समझने की जरूरत है। लोक कल्याण का अर्थ क्या लोगों को कर्तव्यहीन बना देना है। जो चीजें सामान्य नौकरी पेशा, छोटे व्यवसाय अथवा खेती की आय से प्राप्त की जा सकती है, उसके लिए सरकार के आसरे रहा जाए?
राजनीतिक दलों के चुनाव जीतने की महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए मुफ्तखोरी के वादे से संकट पैदा होते रहे हैं। सरकारों के 200 यूनिट तक बिजली मुफ्त देने और किसानों के कर्जे माफ कर देने की घोषणाओं पर अमल ने यह हालत बना दी है कि जिन घरों में पहले से ही बिजली की खपत कम है, वहां भी निश्चिंततापूर्वक 200 यूनिट बिजली खर्च करने की लापरवाही बढ़ी है। लगातार कर्ज लेने वाले किसान मान कर चलने लगे हैं कि चुनाव बाद ये कर्जे माफ कर दिए जाएंगे। इससे राज्य सरकारों के बजट पर असर पड़ा है। आज हालत यह है कि देश के 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 27 में वित्त वर्ष उनके ऋण अनुपात में 0.5 से 7.2 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। पंजाब तो अपने जीडीपी का करीब 53.3 प्रतिशत तक कर्ज ले चुका है। राजस्थान का यह अनुपात 39.8, पश्चिम बंगाल का 38.8, केरल का 38.3 और आंध्र प्रदेश का 37.6 प्रतिशत है। ये सभी राज्य राजस्व घाटा पूरा करने के लिए केंद्र सरकार से अनुदान लेते हैं। महाराष्ट्र और गुजरात जैसे आर्थिक रूप से मजबूत राज्य भी कर्ज-जीएसडीपी अनुपात 23 फीसदी और 20 फीसदी से गुजर रहे हैं।
राज्यों के आर्थिक हालात बताने के पीछे एक और तथ्य है कि केंद्र से मिलने वाली राशि का उचित उपयोग नहीं होता। प्राथमिक खर्चों की जगह कर्ज माफी की घोषणा पर अमल से इन राज्यों के आर्थिक हालात बदतर ही हुए हैं। अस्पताल और चिकित्सा के उपकरण, दवाइयों के अलावा स्कूली और स्वास्थ्य व तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र उपेक्षित हो रहे हैं।
ऐसे में सरकारों को चाहिए कि इस दिशा में केंद्र और न्यायालयों के कठोर रुख पर बेरुखी दिखाने की जगह स्वयं ही सकारात्मक सोच अपनाएं। आज बदतर होते आर्थिक हालात पर लोग श्रीलंका जैसी स्थिति उत्पन्न होने की आशंका जता रहे हैं। श्रीलंका में 2019 के चुनाव के पहले लोगों से वादा किया गया था कि उनके टैक्स आधे कर दिए जाएंगे। इस पर अमल से विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो गया। श्रीलंका के हालात खराब होने के पीछे खेती की पद्धति में अचानक बदलाव जैसे दूसरे कारण भी हैं। फिर भी टैक्स अचानक आधा कर देने से त्वरित प्रभाव पड़ा।
श्रीलंका के विपरीत स्विट्जरलैंड का उदाहरण भी है। वहां एक सर्वे में लोगों को न्यूनतम आय के रूप में भारतीय मुद्रा में करीब डेढ़ लाख रुपये देने की पेशकश की गयी। इसे स्विट्जरलैंड के लोगों ने नकार दिया। उन्होंने रोजगार की जगह बेरोजगारी भत्ता जैसी सुविधा के प्रति भी नकारात्मक रुख दिखाया। ऐसा रुख दिखाने वाले करीब 77 फीसदी लोग थे। वहां के लोग सरकार की दीर्घकालीन आर्थिक नीति के सुदृढ़ होने के बारे में सोच रहे हैं। उसके विपरीत हम यहां सब कुछ मुफ्त मिलने की इच्छा को और अधिक बलवान बना रहे हैं। निश्चित ही इससे भविष्य संकट की ओर ही जाएगा।
मुफ्त की घोषणाओं और चुनाव जीतने के बाद उस पर अमल से हमारे देश की संवैधानिक संस्थाएं पहले भी चिंतित हुईं। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने 05 जुलाई, 2013 के एक अहम फैसले में चुनाव आयोग से कहा था कि वह राजनीतिक दलों से बात कर घोषणापत्रों के बारे में एक कानूनी गाइडलाइन तैयार करे। तब तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत के नेतृत्व में राजनीतिक दलों की बैठक भी हुई। परंतु छह राष्ट्रीय दलों के साथ 24 क्षेत्रीय दलों में से सभी ने एक स्वर से घोषणापत्र पर अंकुश संबंधी योजना का विरोध किया। बाद में भी निर्वाचन आयोग ने चुनाव सुधार से जुड़े प्रस्तावों में घोषणापत्र को आदर्श आचार संहिता के दायरे में लाने की सिफारिश की। चुनावों में छह महीना रह जाने पर किसी भी सरकार की ओर से नई योजनाओं का ऐलान नहीं करने की राय भी दी गयी। यह भी सुझाव आया कि आयोग ऐसे घोषणापत्रों पर अंकुश लगा सकता है, जो निराधार हों और उन्हें पूरा करना संभव नहीं हो।
राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए वादों की बौछार तो कर देती हैं, लेकिन इसका बोझ सरकारी खजाने पर पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि टैक्सपेयर के पैसे का इस्तेमाल कर बांटी जा रहीं फ्रीबीज सरकार को ‘दिवालियेपन’ की ओर धकेल सकती हैं।इतना ही नहीं, पिछले साल आरबीआई की भी एक रिपोर्ट आई थी। इसमें कहा गया था कि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च कर रही हैं, जिससे वो कर्ज के जाल में फंसती जा रही हैं।’स्टेट फाइनेंसेस: अ रिस्क एनालिसिस’ नाम से आई आरबीआई की इस रिपोर्ट में उन पांच राज्यों के नाम दिए गए हैं, जिनकी स्थिति बिगड़ रही है। इनमें पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल शामिल हैं।
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दरअसल, संवैधानिक संस्थाएं देश की आर्थिक हालात के साथ नागरिकों की मुफ्तखोरी के बढ़ते स्वभाव से चिंतित होती रही हैं। हाल के दिनों में चुनाव और चुनाव बाद की ऐसी प्रवृत्ति में बढ़ोतरी चिंताजनक है। माना कि नागरिकों की ओर से दिया जाने वाला टैक्स जनता पर खर्च होना चाहिए। यहां अपने देश के पारंपरिक विचार को ध्यान में रखना होगा। सूरज के समुद्र, नदियों और जल संग्रह वाली इकाइयों से भाप के रूप में उनका अंश लेकर बादल और फिर बरसात के रूप में धरती को इसलिए दिया जाता है कि किसान खेती कर सकें, लोग पीने का पानी संग्रह कर सकें। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया होती है। एक ही बार जरूरत से ज्यादा बारिश भी कहर बरपा करती है। साइकिल, स्कूटी, मोबाइल फोन, लैपटॉप और टीवी जैसी वस्तुएं मुफ्त में देने और कर्जे माफ कर हम पीढ़ी-दर पीढ़ी लोगों को नकारा तो बना ही रहे हैं। साथ ही एक ऐसी व्यवस्था बना रहे हैं जहां से लौटना मुश्किल हो सकता है।