International Human Rights Day : मानवाधिकार : अमल से दूर कागजी फसाना

International Human Rights Day : मानवाधिकार दिवस 2025 पर भारत में अधिकारों की वास्तविक स्थिति, प्रेस स्वतंत्रता, हिरासत मौतें, शिक्षा-स्वास्थ्य स्थिति, पर्यावरण संकट और सुधारों का विश्लेषण।

राजीव तिवारी बाबा, स्वतंत्र पत्रकार

आज 10 दिसंबर है – अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस। दुनिया भर में मनाया जाने वाला यह दिन सुनने में जितना मनभावन लगता है, उतना ही गहरा अर्थ भी लिए हुए है। मानवाधिकार यानी ऐसे हक, जो किसी जाति, धर्म, भाषा, रंग, लिंग या संस्कृति की दीवारों में बंधे नहीं, बल्कि सिर्फ इसलिए मिले हैं क्योंकि हम इंसान हैं और वो भी संवैधानिक रूप से। लेकिन सवाल यह है कि इन अधिकारों का भारतीय धरातल पर सच क्या है? कागज पर दर्ज अधिकार क्या आम नागरिक के जीवन में भी उतनी ही मजबूती से मौजूद हैं?

पहली बार यह दिवस 1950 में मनाया गया, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रस्ताव पारित कर 10 दिसंबर को सार्वभौमिक मानवाधिकार दिवस के रूप में घोषित किया। इसकी नींव 10 दिसंबर 1948 को रखी गई थी, जब पेरिस में ‘सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा पत्र’ (यूडीएचआर) को अपनाया गया। 30 अनुच्छेदों वाला यह दस्तावेज मानव इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों में माना जाता है। इसमें जीवन, स्वतंत्रता, समानता, शिक्षा, काम और निष्पक्ष मुकदमे जैसे मूल अधिकारों की गारंटी दी गई है। यह दुनिया का सबसे ज्यादा अनुदित दस्तावेज भी है – अब तक 500 से अधिक भाषाओं में।

2025 का थीम है – “इक्वालिटी, डिग्निटी एंड जस्टिस फॉर ऑल – लीविंग नो वन बिहाइंड”, जो यूडीएचआर के पहले अनुच्छेद से प्रेरित है : “सभी मनुष्य गरिमा और अधिकारों में समान पैदा होते हैं।” इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र खासतौर पर एलजीबीटीक्यू + समुदाय, प्रवासी मजदूरों, शरणार्थियों, जलवायु परिवर्तन से प्रभावित समूहों और डिजिटल युग में गोपनीयता व अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जोर दे रहा है।

मानवाधिकारों को तीन पीढ़ियों में बांटा गया है –

पहली पीढ़ी : नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार – वन का अधिकार, समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता, निष्पक्ष सुनवाई, यातना से मुक्ति और लोकतांत्रिक अधिकार।

दूसरी पीढ़ी : आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार – काम का अधिकार, उचित मजदूरी, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ, सामाजिक सुरक्षा और सांस्कृतिक जीवन में भागीदारी।

तीसरी पीढ़ी : सामूहिक व वैश्विक अधिकार – विकास का अधिकार, शांतिपूर्ण विश्व, स्वच्छ पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर सामुदायिक अधिकार।

भारत ने इन अधिकारों को संविधान में ही समाहित कर दिया। भाग-3 के मौलिक अधिकार – समानता (14-18), स्वतंत्रता (19-22), शोषण के विरुद्ध संरक्षण (23-24), धर्म की स्वतंत्रता (25-28), सांस्कृतिक अधिकार (29-30) और संवैधानिक उपचार (32)—इनकी नींव हैं। साथ ही भारत आईसीसीपीआर और आईसीईएससीआर जैसी अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों का हस्ताक्षरकर्ता भी है। कागजों में तस्वीर बेहद मजबूत दिखती है। लेकिन धरातल पर कहानी में कई दरारें नजर आती हैं।

2025 के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 151वें स्थान पर है। पिछले वर्षों से थोड़ा सुधरकर भी यह समस्या ग्रस्त देशों की श्रेणी में है। मीडिया पर बढ़ते दबाव, कॉर्पोरेट का बढ़ता प्रभाव और पत्रकारों पर हमले चिंताजनक संकेत देते हैं। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के अनुसार, भारतीय मीडिया में “एकाधिकार की प्रवृत्ति” तेज हुई है – जहां कुछ बड़े समूह खबरों की दिशा तय करते हैं।

जीवन का अधिकार किसी भी लोकतंत्र का आधार होता है, लेकिन भारत में हिरासत में मौतें एक गंभीर धब्बा हैं। ग्लोबल टॉर्चर इंडेक्स 2025 ने भारत को हाई रिस्क श्रेणी में रखा है। सिर्फ 2022 में 1,995 कैदियों की मौत दर्ज हुई, जिनमें 159 की मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई। एनएचआरसी की 2023-24 रिपोर्ट में 1.2 लाख से अधिक शिकायतें आईं – जिनमें पुलिस अत्याचार और यातना के मामले शीर्ष पर रहे।

ह्यूमन राइट्स वॉच की 2025 रिपोर्ट बताती है कि अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भेदभाव बढ़ा है – अवैध बुलडोजर कार्रवाइयों से लेकर संदिग्ध एनकाउंटर तक। एमनेस्टी इंटरनेशनल का दावा है कि एक्टिविस्ट और सिविल सोसायटी समूहों को कठोर कानूनों (जैसे यूएपीए) के तहत निशाना बनाया जा रहा है।

एनएफएचएस के अनुमानों के अनुसार 2025 तक भारत की साक्षरता दर 81 फीसदी तक पहुंच सकती है, जो 2011 के 74 फीसदी से बहुत बेहतर है। शहरी भारत की साक्षरता 88.9 फीसदी है, जबकि ग्रामीण भारत अभी 77.5 फीसदी पर है। मिजोरम जैसे राज्य 98 फीसदी पर चमक रहे हैं, लेकिन देश के कुछ हिस्सों में महिला साक्षरता पुरुषों से 20 प्रतिशत कम है, यह असमानता चिंता का विषय है।

भारत का इन्फैंट मॉर्टेलिटी रेट 1971 के 129 से घटकर 2023 में 25 पर आ गया, यह बड़ी उपलब्धि है। यूनिसेफ के अनुसार 2025 में यह 24 तक आ सकता है। लेकिन निओनेटल डेथ्स (पहले महीने की मौतें) का अनुपात 73 फीसदी है, जो बताता है कि जन्म के तुरंत बाद की स्वास्थ्य सेवाएँ आज भी कमजोर हैं। मातृ मृत्यु दर 2014 के 130 से घटकर 2021 में 97 हो गई है, लेकिन अनुसूचित जाति-जनजाति महिलाओं में यह दोगुनी है – असमानता गहरी है।

काम का अधिकार एक मूलभूत मानवाधिकार है, लेकिन भारत की बेरोजगारी दर 8 फीसदी के आसपास बनी हुई है। इंटरनेट शटडाउन जैसी कार्रवाइयों से मनरेगा जैसे सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम भी प्रभावित होते हैं, जिससे गरीबों का हक छिनता है।

भारत का विकास मॉडल पर्यावरण पर भारी पड़ रहा है। 2025 की स्टेट ऑफ इंडियाज़ एनवायरनमेंट
रिपोर्ट बताती है कि कोई भी राज्य 70/100 से ऊपर स्कोर नहीं कर पाया। 255 शहरों में डब्लूएचओ के पीएम 2.5 मानकों से अधिक प्रदूषण दर्ज हुआ। 2025 में वायु प्रदूषण से 9.5 लाख समयपूर्व मौतें हुईं – यानी हवा लोगों की जिंदगी घटा रही है। दिल्ली में नवंबर 2025 में एक्यूआई 344 तक पहुंचा, जिससे बच्चे-बुजुर्ग घरों में कैद हो गए। नदियां भी प्रदूषण से जूझ रही हैं – सीवेज और औद्योगिक कचरे ने कई नदियों की जीवनधारा कम कर दी है। नमामि गंगे जैसी योजनाएँ अपेक्षित परिणाम देने में असफल रहीं, और भ्रष्टाचार के आरोपों ने इन्हें और कमजोर किया।

इन तमाम मुश्किलों के बीच उम्मीद भी मौजूद है। कुछ निर्भीक पत्रकार, एनजीओ, एक्टिविस्ट, ईमानदार अधिकारी और न्यायपालिका के कुछ फैसले अभी भी मानवाधिकारों के पक्ष में मजबूती से खड़े दिखाई देते हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग समय-समय पर सख्त संज्ञान लेता है और 2025 में ‘प्रिजन इनमेट्स के अधिकारों’ पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन जेल सुधारों की दिशा में महत्वपूर्ण कदम था। लेकिन यह भी सच है कि 60 फीसदी शिकायतें सुनवाई के इंतजार में ही रह जाती हैं। एक लोकतांत्रिक देश में यह स्थिति प्रश्न खड़ा करती है, क्या हमारी आजादी सिर्फ वोट डालने तक सीमित होकर रह गई है?

कल्पना कीजिए एक ऐसा भारत जहां हवा और पानी साफ हो, शिक्षा और स्वास्थ्य गुणवत्तापूर्ण हों, हर आवाज सुनी जाए, न्याय बिना भेदभाव के मिले, प्रेस स्वतंत्र हो, लोकतंत्र मजबूत हो और विकास पर्यावरण को निगले नहीं, बल्कि संवारें। यह सपना असंभव नहीं।

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मानवाधिकार दिवस हमें याद दिलाता है कि अधिकार सिर्फ लिखे जाने से पूरे नहीं होते, उन्हें जिया जाता है, और उनके लिए संघर्ष भी करना पड़ता है। भारत के पास संसाधन भी हैं और इच्छाशक्ति भी, जरूरत है संवेदनशील शासन, जागरूक नागरिकों और जवाबदेह व्यवस्था की। सवाल है, क्या हम तैयार हैं उस भारत को बनाने के लिए जो सच में सबको साथ लेकर चले?

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