
Entertainment news: ग्लैमर, एक्शन और हाई-प्रोफाइल स्टारडम से सजे बॉक्स ऑफिस पर, फिल्म ‘खरीफ़’ एक ताज़ा हवा के झोंके की तरह आती है—साधारण लोगों की असाधारण कहानियों को बयां करती एक सच्ची फिल्म। इसमें न कोई चमचमाता हीरो है, न ही कोई आइटम सॉन्ग या तड़क-भड़क से भरा प्रचार अभियान। इसके केंद्र में है वह किसान, जिसकी मेहनत से देश का पेट भरता है, मगर जिसकी कहानियाँ अक्सर सिनेमा के पर्दे से गायब रहती हैं।
जब थिएटरों में ‘एनिमल’ की गोलियों की गूंज थी और ‘जाट’ की गालियों से सोशल मीडिया पटा पड़ा था, उस वक्त किसी ने शायद कल्पना भी नहीं की होगी कि किसान की आशाओं, थकानों और संघर्षों को इतनी खूबसूरती से पर्दे पर उकेरा जा सकता है। लेकिन ‘खरीफ़’ यह जोखिम न केवल उठाती है, बल्कि बेहद संजीदगी से निभाती भी है।
सिनेमा जो सच के कंधों पर खड़ा है
‘खरीफ़’ कोई चकाचौंध से सजी काल्पनिक दुनिया नहीं रचती, बल्कि यह एक यथार्थवादी फिल्म है, जो भारतीय कृषि जीवन की नब्ज़ को छूती है। बिना किसी सितारा ताकत और भारी प्रचार के, इस फिल्म को त्रिलोक कोठारी, प्रकाश चौधरी और धीरेंद्र डिमरी ने एक संकल्प की तरह निर्मित किया है—कि सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, संवेदना का माध्यम भी हो सकता है।
फिल्म के लेखक विक्रम सिंह ने एक पोस्ट में लिखा, “‘खरीफ़’ कोई प्रचार नहीं, बल्कि प्रतिकार है—उस मौन के विरुद्ध जो किसानों की पीड़ा को निगल जाता है। जब किसान सिर्फ एक आँकड़ा बन जाता है, तब ज़रूरत होती है एक ऐसी फ़िल्म की, जो कह सके—यह भी भारत है।“
गाँव की ज़मीन से उपजी कथा
फिल्म में मनोज कुमार, मनोज पांडे, यामिनी मिश्रा, प्रकाश चौधरी और सम्राट सोनी जैसे कलाकारों ने अपने किरदारों को निभाने से पहले गांवों में रहकर, किसानों की ज़िंदगी को आत्मसात किया। राजस्थान की झुलसाती गर्मी—जहां तापमान 45 डिग्री तक जा पहुंचा—में भी पूरी टीम बिना रुके काम करती रही। राजस्थान, गुजरात, दिल्ली और मुंबई में फिल्माई गई ‘खरीफ़’ हर दृश्य में उस सच्चाई को समेटे है जो आमतौर पर कैमरे के बाहर रह जाती है।
नंगे पाँव खेतों में दौड़ते बच्चे, गठरी-से झुके मज़दूरों के कंधे, और स्त्रियों की आंखों में तैरते मौन सपने—इन सबको फिल्म ऐसे दर्ज करती है जैसे किसी कविता की पंक्तियाँ हों। यह सिर्फ कहानी नहीं, एक अनुभव है।
किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में उपजी एक सशक्त आवाज़
जब देश भर में किसान आंदोलन की गूंज संसद से सोशल मीडिया तक सुनाई दे रही थी, तब मुख्यधारा का सिनेमा ख़ामोश था। ‘खरीफ़’ उस चुप्पी को तोड़ती है और एक मजबूत सिने-डॉक्यूमेंट बनकर सामने आती है। यह उन किसानों की कहानी है जो बीज बोते वक्त मौसम से ज़्यादा घर की भूख और भविष्य की चिंता करते हैं।
मिट्टी की खुशबू से भीगी एक कहानी
‘खरीफ़’ कोई नारा नहीं देती, न ही किसी विचारधारा को थोपती है। यह बस चुपचाप वह दिखा देती है जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। फिल्म का हर फ्रेम, हर संवाद और हर मौन—किसी दस्तावेज़ की तरह हमारे सामने खुलता है। यह याद दिलाती है कि असली भारत सिर्फ मॉल और मेट्रो शहरों में नहीं, उन खेतों में भी धड़कता है जहां पसीने से धरती सिंचती है।
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आज जब सिनेमा तकनीक और तड़क-भड़क की दौड़ में भावनाओं को पीछे छोड़ता जा रहा है, ‘खरीफ़’ हमें फिर से यह यकीन दिलाती है कि संवेदनाओं से बुनी कहानियों की अब भी ज़रूरत है। और सबसे ज़रूरी बात—अब भी ऐसे फ़िल्मकार हैं, जो नायक को कैप में नहीं, हल के पीछे तलाशते हैं।