EMI Pressure – ईएमआई के बोझ तले दबी महिला — 12 रुपये महीने की कमाई, 12 घंटे की मेहनत और हर रात बहते आंसू

EMI Pressure – उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे की रहने वाली संतोष देवी (परिवर्तित नाम) हर दिन सुबह चार बजे उठ जाती हैं।
पहले घर के सारे काम निपटाती हैं, फिर ईंट भट्टे या किसी खेत में मज़दूरी के लिए निकल पड़ती हैं।
कुल 12 घंटे की मेहनत के बाद भी उनकी झोली में महीने के अंत तक बचते हैं सिर्फ 12 रुपये।

इतनी मेहनत के बाद भी उनकी ज़िंदगी आसान नहीं है — क्योंकि उन पर ईएमआई का पहाड़ जैसा बोझ है।
कुछ साल पहले पति की बीमारी के इलाज के लिए उन्होंने एक माइक्रो लोन लिया था।
वो सोच रही थीं कि धीरे-धीरे चुका देंगी, लेकिन बढ़ती महंगाई और घटती मजदूरी ने उनके सपनों को तोड़ दिया।

संतोष देवी बताती हैं, हर महीने किस्त चुकाने के बाद बच्चों की पढ़ाई, किराया, और दवाई के पैसे नहीं बचते।
रात में जब सब सो जाते हैं, तो मैं सोचती हूँ — क्या कभी इस कर्ज़ से आज़ादी मिलेगी? उनकी आंखों से बहते आंसू सिर्फ उनकी तकलीफ नहीं, बल्कि उन लाखों महिलाओं की कहानी हैं जो हर दिन इसी संघर्ष से गुजरती हैं।
आज भारत में महिला मज़दूर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा सूक्ष्म ऋणों (Micro Loans) और EMI के जाल में फंसा हुआ है।
काम बहुत, कमाई बेहद कम।

विशेषज्ञ कहते हैं कि यह सिर्फ एक महिला की नहीं, बल्कि आर्थिक असमानता और सामाजिक उदासीनता की गहरी तस्वीर है।
सरकारी योजनाओं और बैंकों की स्कीमों के बावजूद, ज़मीन पर हालात में बदलाव बहुत धीमा है।
गरीब औरतें अपनी मेहनत से परिवार को संभालती हैं, लेकिन जब मेहनत का मूल्य ही न मिले — तो टूटना लाजमी है। फिर भी संतोष देवी हर सुबह उठती हैं, उम्मीद के साथ। वो कहती हैं, जब तक सांस है, कोशिश करती रहूंगी शायद एक दिन ईएमआई खत्म हो जाएगी।उनकी यह हिम्मत ही आज की सबसे बड़ी कहानी है — दर्द में भी उम्मीद ज़िंदा है।

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