
Bihar Election 2025 . बिहार विधानसभा चुनाव के बीच एक बार फिर राज्य की राजनीति में वाम दलों की सक्रियता चर्चा में है। साल 2020 के चुनाव में वाम दलों के प्रदर्शन को राजनीतिक पुनरुत्थान कहा गया था। दशकों बाद उन्होंने न केवल सीटें जीतीं बल्कि सत्ता-समीकरण में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी।
उस समय सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा था, इन नतीजों ने साबित किया कि वामपंथ को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। 2020 में भाकपा (माले), सीपीआई और सीपीएम ने मिलकर 16 सीटें जीतीं – जो 2015 की तुलना में उल्लेखनीय बढ़त थी। अब एक बार फिर वाम दल महागठबंधन के साथ चुनावी मैदान में हैं। इस बार सीपीआई(एमएल) 20, सीपीआई(एम) 4 और सीपीआई 9 सीटों पर लड़ रही है। सभी दलों को उम्मीद है कि जनता इस बार भी 2020 जैसा समर्थन देगी।
इन सीटों पर मिली से मामूली अंतर से हार
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 2020 में वाम दलों का उभार आंशिक रूप से कोविड संकट के कारण हुआ था। मजदूर वर्ग और प्रवासी श्रमिकों की पीड़ा ने वाम के मुद्दों को ताकत दी थी। बिहार में वाम की सबसे मजबूत पकड़ मगध और शाहाबाद क्षेत्रों में है। गया, औरंगाबाद, नवादा, अरवल और जहानाबाद जिलों की 20 सीटों के साथ-साथ भोजपुर, बक्सर, रोहतास और कैमूर की 16 सीटों पर इनका प्रभाव है।
कई सीटों पर वाम प्रत्याशियों की हार बहुत मामूली अंतर से हुई थी। जैसे – भोरे में माले उम्मीदवार महज 462 वोटों से हारे, बछवाड़ा में सीपीआई उम्मीदवार 500 वोटों से पीछे रहे और आरा में अंतर 3,000 वोटों का था। उनका कहना है कि यदि संगठनात्मक एकता और जनाधार को मज़बूती मिले तो वाम को इस बार अधिक सफलता मिल सकती है।
महागठबंधन के भीतर मतभेद
हालांकि महागठबंधन के भीतर सीट बंटवारे को लेकर मतभेद भी सामने आए हैं। बेगूसराय की बछवाड़ा, बिहारशरीफ़, राजापाकड़ और करगहर सीटों पर कांग्रेस और सीपीआई के बीच सीधी टक्कर है। फुलवारी, दीघा और बिहारशरीफ़ जैसे शहरी क्षेत्रों में वाम उम्मीदवारों की राह कठिन है। फुलवारी में माले विधायक गोपाल रविदास के सामने इस बार जेडीयू के श्याम रजक हैं, जिनकी पकड़ सेक्युलर मतदाताओं पर मजबूत मानी जाती है।
राजनीति विज्ञान के एक प्रोफेसर बताते हैं कि मुफ़्त राशन, बिजली और अन्य योजनाओं जैसी फ्रीबीज़ पॉलिटिक्स ने वाम राजनीति को नुकसान पहुंचाया है, क्योंकि ये योजनाएँ गरीबों की तात्कालिक जरूरतों को पूरा कर देती हैं। इतिहास बताता है कि 1960 से 1980 तक वाम दलों का बिहार में स्वर्णिम दौर रहा। 1972 में सीपीआई ने 35 सीटें जीती थीं और विपक्ष के नेता का पद भी संभाला था। पर मंडल युग के बाद जातिगत राजनीति के उभार ने वर्ग-आधारित वाम आंदोलन को हाशिए पर पहुंचा दिया।
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माले महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य इसे गठबंधन की मजबूरी नहीं बल्कि सामंतवादी ताकतों के खिलाफ संयुक्त संघर्ष बताते हैं। वे कहते हैं कि अगर हम साथ न लड़ें, तो नुकसान सबको होगा। बहरहाल, इस बार का चुनाव तय करेगा कि 2020 का ‘पॉलिटिकल रिवाइवल’ वाम दलों के लिए स्थायी मोड़ था या बस एक अस्थायी चमक।



