
मनोज मिश्रा
Bihar Election 2025 : बिहार विधानसभा चुनाव 2025 ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया कि विपक्षी महागठबंधन अपने आंतरिक संघर्षों, रणनीतिक विफलताओं और संगठनात्मक ढीलेपन के कारण जनता का भरोसा जीतने में नाकाम रहा। वहीं, एनडीए 200 से अधिक सीटों पर बढ़त बनाए हुए है, जो नीतीश कुमार के नेतृत्व में अब तक की सबसे निर्णायक जीत कही जा रही है।
राष्ट्रीय जनता दल इन चुनावों में अपने पारंपरिक मुस्लिम-यादव (एमवाई) समीकरण के भरोसे उतरा, जो राज्य के लगभग 30 फीसदी मतदाताओं को प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन त्रिकोणीय और अधिक प्रतिस्पर्धी चुनाव में यह आधार अपर्याप्त साबित हुआ। तेजस्वी यादव अत्यंत पिछड़े वर्गों, दलितों और नए मतदाताओं में विस्तार करने में विफल रहे, ये समूह पिछले एक दशक में लगातार जेडी(यू)-बीजेपी गठबंधन की ओर आकर्षित हुए हैं।
राजद द्वारा 2023 के जाति सर्वेक्षण को सशक्तिकरण का अहम कदम बताने के बावजूद इसका चुनावी लाभ दिखाई नहीं दिया। आलोचकों ने इसे विकास की बजाय राजनीतिक ध्रुवीकरण का औज़ार करार दिया। नतीजतन, पार्टी अपने पारंपरिक आधार से आगे नहीं बढ़ पाई। तेजस्वी यादव के नए राजद की छवि गढ़ने के प्रयासों को 1990-2005 की ‘जंगल राज’ की स्मृतियों ने कमजोर कर दिया। उस दौर में बढ़ते अपहरण, जातीय हिंसा और अपराधीकरण की घटनाओं ने जो नकारात्मक प्रभाव छोड़ा था, वह आज भी मतदाताओं के मन में मौजूद है। एनडीए ने इस मुद्दे को जोरदार ढंग से उठाया और कानून-व्यवस्था की तुलना को चुनावी बहस का केंद्र बना दिया।
एनडीए नेताओं ने 1985, 1990 और 1995 के चुनावों की हिंसा और पुनर्मतदान की तुलना आज के शांतिपूर्ण मतदान से करते हुए नीतीश कुमार की प्रशासनिक स्थिरता को रेखांकित किया। 2025 में शून्य हिंसा और शून्य पुनर्मतदान को एनडीए ने अपनी उपलब्धि के रूप में पेश किया।
एक बार फिर कमजोर कड़ी साबित हुई कांग्रेस
महागठबंधन में कांग्रेस की भूमिका एक बार फिर कमजोर कड़ी साबित हुई। 2020 में 19 सीटें जीतने वाली कांग्रेस इस बार शुरुआती रुझानों में मात्र चार सीटों पर आगे थी। 60 सीटों पर चुनाव लड़कर भी पार्टी अपने वोट को सीटों में बदलने में नाकाम रही। संगठनात्मक कमजोरी, कमजोर जमीनी उपस्थिति और किसी ठोस मुद्दे पर जनमत निर्मित न कर पाने से गठबंधन की रणनीति लड़खड़ा गई।
राहुल गांधी द्वारा ‘वोट चोरी’ के आरोपों और मतदाता सूची में अनियमितताओं के अभियान को भी मतदाताओं ने गंभीरता से नहीं लिया। 16 दिवसीय मतदाता अधिकार यात्रा भी चुनावी समीकरण नहीं बदल सकी।
महागठबंधन की सबसे बड़ी कमज़ोरी आंतरिक समन्वय
महागठबंधन की सबसे बड़ी कमज़ोरी उसका आंतरिक समन्वय रहा। कई दौर की बैठकें होने के बावजूद गठबंधन 11 सीटों पर आपसी लड़ाई रोकने में विफल रहा। राजद-कांग्रेस के बीच पांच, कांग्रेस-भाकपा के बीच चार और राजद-वीआईपी के बीच दो सीटों पर दोस्ताना संघर्ष ने महत्वपूर्ण नुकसान पहुंचाया।
2020 में जहां महागठबंधन और एनडीए के बीच सिर्फ 0.03 प्रतिशत वोट का अंतर था, उसी सघन चुनावी परिदृश्य में ऐसे टकराव इस बार निर्णायक साबित हुए। इसके उलट, एनडीए ने एकजुट, लक्ष्य-आधारित और विकास-केंद्रित अभियान चलाया। नीतीश कुमार की सुशासन छवि, महिला सशक्तिकरण के कार्यक्रम, जीविका दीदियों के खातों में राशि हस्तांतरण और सामाजिक स्थिरता पर आधारित संदेश ने मतदाताओं में भरोसा जगाया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय लोकप्रियता और जेडी(यू)-बीजेपी की नई साझेदारी ने चुनाव में मजबूत लहर पैदा की। 67.13 प्रतिशत मतदान, जो 1951 के बाद सर्वाधिक है। खास तौर पर महिलाओं ने 71.6 प्रतिशत की भागीदारी के साथ निर्णायक भूमिका निभाई।
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बिहार के इस चुनाव ने साफ कर दिया है कि केवल जातीय समीकरण या आरोप-प्रत्यारोप से चुनाव नहीं जीते जा सकते। रणनीतिक एकता, संगठन और सुसंगत संदेश की अनुपस्थिति ने महागठबंधन को कमजोर किया, जबकि एनडीए ने विकास, स्थिरता और प्रशासनिक निरंतरता को चुनावी विमर्श का केंद्र बनाए रखा। शुरुआती रुझानों के अनुसार, यह जीत नीतीश कुमार के राजनीतिक सफर की सबसे प्रचंड और निर्णायक जीत मानी जा रही है।



