
Lucknow. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फर्रुखाबाद की पुलिस अधीक्षक आरती सिंह को अदालत में तब तक बैठाए रखा, जब तक पुलिस ने हिरासत में लिए गए अधिवक्ता अवधेश मिश्रा को रिहा नहीं किया। अदालत ने स्पष्ट किया कि पुलिस का यह रवैया न्यायिक प्रक्रिया में बाधा डालने जैसा है और यह पूरे प्रशासनिक सिस्टम की जवाबदेही पर सवाल उठाता है।
कोर्ट ने कहा कि पुलिस का यह आचरण न्यायिक प्रक्रिया में सीधा दखल है और यह केवल एक जिले की गलती नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की कमजोरी का आईना है। मामला प्रीति यादव की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका से जुड़ा है। प्रीति ने आरोप लगाया कि आठ सितंबर की रात पुलिस उनके घर घुस आई और परिवार के दो सदस्यों को बिना किसी आदेश के उठाया। अदालत में यह तथ्य सामने आने पर जस्टिस जे.जे. मुनीर और जस्टिस संजीव कुमार की खंडपीठ ने एसपी आरती सिंह को तलब किया।
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सुनवाई के दौरान कोर्ट को बताया गया कि एसपी के आदेश पर अधिवक्ता अवधेश मिश्रा और उनके बेटे कृष्णा मिश्रा को अदालत के बाहर से हिरासत में लिया गया। कोर्ट ने इसे न्यायिक प्रक्रिया में बाधा डालने के रूप में देखा और नाराजगी जताई। हालांकि बाद में राज्य सरकार की अपील पर उन्हें राहत मिली, लेकिन संदेश स्पष्ट था: अदालत अब मनमानी बर्दाश्त नहीं करेगी।
इन्हें भी लग चुकी फटकार
फर्रुखाबाद पुलिस का विवादों से पुराना नाता है। पिछले दो वर्षों में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कई बार अफसरों की लापरवाही पर सख्त टिप्पणी की है। दिसंबर 2024 में समाज कल्याण विभाग के विशेष सचिव रजनीश चंद्रा और अवस्थापना व औद्योगिक विकास विभाग के प्रमुख सचिव अनिल सागर को कोर्ट ने आदेश न मानने पर कड़ी फटकार दी थी।
हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ताओं का कहना है कि यूपी की नौकरशाही अब अदालत के आदेशों को औपचारिकता समझने लगी है, जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। राजनीति के जानकार मानते हैं कि राजनीतिक संरक्षण और जवाबदेही की कमी अफसरों को कानून से ऊपर समझने पर मजबूर कर रही है।
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इस घटना ने योगी सरकार की छवि पर सवाल खड़े किए हैं। जबकि भाजपा प्रवक्ता का कहना है कि सरकार न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सम्मान करती है और जीरो टॉलरेंस नीति पर काम कर रही है, लेकिन अदालत की लगातार फटकार दिखाती है कि जमीन पर जवाबदेही अधूरी है।
विवेकाधिकार का मतलब मनमानी नहीं
विशेषज्ञों के अनुसार, प्रशासनिक अधिकारों का दुरुपयोग और आदेशों का टालमटोल लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर करता है। हाईकोर्ट ने साफ कर दिया कि विवेकाधिकार का मतलब मनमानी नहीं है। फर्रुखाबाद का मामला यह साबित करता है कि अफसर कानून की बजाय सत्ता के प्रति जवाबदेह होने लगें, तो न्यायपालिका को सख्त कदम उठाने पड़ते हैं। अब सवाल यह है कि योगी सरकार क्या नौकरशाही को अनुशासन में लाएगी, या अदालतों को बार-बार शासन के पहियों को सीधा करना पड़ेगा।
फर्रुखाबाद का मामला यह दिखाता है कि जब अफसर कानून से ऊपर खुद को समझने लगते हैं, तो न्यायपालिका को सख्त कदम उठाना पड़ता है। अब यह देखना होगा कि सरकार नौकरशाही को अनुशासन में लाती है या अदालतों को बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ेगा।