
Presidential Reference : राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के तहत पूछे गए सवालों पर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को महत्वपूर्ण राय देते हुए साफ किया कि राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए किसी भी बिल को मंजूरी देने की कोई समयसीमा तय नहीं की जा सकती। अदालत ने कहा कि संविधान ऐसी कोई बाध्यता नहीं लगाता और न ही न्यायपालिका ऐसे निर्देश जारी कर सकती है।
हालांकि, पांच जजों की संविधान पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि राज्यपाल और राष्ट्रपति किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। अदालत ने कहा कि उनकी शक्तियाँ सीमित हैं और यदि किसी मामले में अत्यधिक देरी होती है तो न्यायिक समीक्षा के तहत अदालत स्थिति की जांच कर सकती है।
यह फैसला चीफ जस्टिस जस्टिस बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने सुनाया। पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर शामिल थे।
राज्यपालों के पास केवल तीन विकल्प: सुप्रीम कोर्ट
पीठ ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपालों के पास किसी विधेयक पर कार्रवाई के तीन विकल्प हैं, उसे मंजूरी देना, पुनर्विचार के लिए विधानसभा को लौटाना या राष्ट्रपति के पास भेजना।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसके अलावा किसी अन्य प्रकार की परिस्थिति – जैसे बिना कारण बताए लंबी देरी, संविधान की मंशा के विरुद्ध है और संघीय ढांचे को कमजोर करती है।
क्यों मांगी गई थी सुप्रीम कोर्ट से सलाह?
तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा कई विधेयकों को लंबे समय तक रोककर रखने के बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। उस दौरान दो जजों की बेंच ने विधेयकों के निपटारे को लेकर समय सीमा तय कर दी थी। इसके बाद संवैधानिक भ्रम की स्थिति बनी और राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143(1) के तहत 14 सवाल सुप्रीम कोर्ट को भेजकर मार्गदर्शन मांगा था।
अब संविधान पीठ ने कहा कि राज्यपालों के पास असीमित शक्ति नहीं है, लेकिन समयसीमा तय करना भी संविधान की लचीली प्रकृति के विपरीत है।
अनुच्छेद 200 पर कोर्ट का रुख
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 200 में राज्यपाल की शक्तियों के संबंध में न्यायिक हस्तक्षेप सीमित है। अदालत ने यह भी माना कि तमिलनाडु के मामले में पहले दी गई न्यायिक स्वीकृति उचित नहीं थी।
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पीठ ने कहा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्यपालों का कार्य संविधान के ढांचे और राजनीतिक निष्पक्षता पर आधारित होता है। ऐसे में अदालतें समयसीमा निर्धारित करने जैसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं, लेकिन अत्यधिक देरी होने पर वे यह जांच सकती हैं कि क्या राज्यपाल संविधान का पालन कर रहे हैं।



