
Bihar Election 2025. बिहार विधानसभा चुनावों को लेकर जारी एक स्वतंत्र रिपोर्ट ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, खासकर फेसबुक और इंस्टाग्राम, पर पारदर्शिता की कमी और नियमों के उल्लंघन को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं।
डेमोक्रेटिक चरखा और व्हाट टू फिक्स नामक दो नागरिक संगठनों द्वारा जारी रिपोर्ट इनफ्लूएंसर मोनेटाइजेशन – लॉक्ड फ्रॉम रील्स टू रेवेन्यू, फ्रॉम व्यूज टू वोटस् में दावा किया गया है कि बिहार के कई उम्मीदवारों ने चुनाव प्रचार के दौरान अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स से कमाई जारी रखी और इसकी जानकारी चुनाव आयोग को नहीं दी।
रिपोर्ट के अनुसार, पहले चरण में नामांकन दाखिल करने वाले 16 प्रतिशत उम्मीदवारों के फेसबुक अकाउंट्स मोनेटाइज्ड थे, यानी वे आर्थिक लाभ कमा रहे थे। लेकिन 90 प्रतिशत उम्मीदवारों ने अपने हलफनामों में इस आय का कोई जिक्र नहीं किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि मेटा (फेसबुक की पैरेंट कंपनी) अपने ही नियमों का उल्लंघन कर रहा है। चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के अकाउंट्स को डिमॉनेटाइज किया जाना चाहिए, ताकि कोई भी प्रत्याशी प्लेटफॉर्म से आर्थिक लाभ न उठा सके।
विज्ञापन पर खर्च हुए करोड़ों रुपए
रिपोर्ट का एक बड़ा हिस्सा राजनीतिक दलों द्वारा शैडो विज्ञापनों पर केंद्रित है। इसमें कहा गया है कि बिहार चुनावों में आधिकारिक राजनीतिक विज्ञापन खर्च 7.8 करोड़ रुपये था, लेकिन अतिरिक्त 2.9 करोड़ रुपए अघोषित या अनाधिकारिक विज्ञापनों पर खर्च किए गए।
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रिपोर्ट के मुताबिक भाजपा ने फेसबुक विज्ञापनों पर 5.6 करोड़ रुपए, जन सुराज पार्टी ने 1.4 करोड़, जबकि आरजेडी और जेडीयू ने क्रमशः 8.7 लाख और 17.8 लाख रुपए खर्च किए। रिपोर्ट का दावा है कि इन आधिकारिक आंकड़ों के अलावा करीब 3 करोड़ रुपये का प्रचार शैडो पेजों और गैर-पार्टी अकाउंट्स से चलाया गया, जिनका सीधा संबंध राजनीतिक दलों से नहीं था।
चुनाव आयोग से कुछ ठोस कदम उठाने की मांग
रिपोर्ट में सोशल मीडिया पर सक्रिय उम्मीदवारों को तीन वर्गों में बांटा गया है, जिसमें लोकप्रिय कलाकार और पहली बार चुनाव लड़ने वाले, सोशल मीडिया पर प्रसिद्ध लेकिन राजनीतिक रूप से असफल चेहरे और तीसरे वर्तमान विधायक या मंत्री शामिल हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ उम्मीदवार अपने सोशल मीडिया से उतनी या उससे अधिक कमाई कर रहे हैं, जितना वे चुनाव प्रचार पर खर्च कर रहे हैं।
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डेमोक्रेटिक चरखा और व्हाट टू फिक्स ने मेटा और चुनाव आयोग से कुछ ठोस कदम उठाने की मांग की है। सिफारिशों में कहा गया है कि उम्मीदवारों को अपने सोशल मीडिया पेज का यूनिक आईडी और यूआरएल हलफनामे में देना अनिवार्य हो, चुनाव अवधि के दौरान सभी उम्मीदवारों के अकाउंट अस्थायी रूप से डिमॉनेटाइज किए जाएं, वर्तमान पदाधिकारियों को सोशल मीडिया से अर्जित आय चुनाव आयोग की निगरानी में लौटानी चाहिए।
चुनाव आयोग ने कहा, उचित समय पर देंगे जवाब
एक न्यूज एजेंसी ने मेटा की पब्लिक पॉलिसी टीम और बिहार चुनाव आयोग से प्रतिक्रिया मांगी, लेकिन रिपोर्ट जारी होने तक किसी की ओर से जवाब नहीं मिला। बिहार चुनाव आयोग के मीडिया प्रभारी ने कहा कि हम आपके सवालों का उचित समय पर जवाब देंगे।
वरिष्ठ पत्रकारों के मुताबिक, यह रिपोर्ट चुनावी पारदर्शिता के लिए चेतावनी है। मेटा और चुनाव आयोग चाहें तो ऐसे मामलों पर तुरंत कार्रवाई कर सकते हैं, लेकिन यहां इच्छाशक्ति की कमी दिखती है। सोशल मीडिया से हो रही कमाई और प्रचार पर चुनाव आयोग की निगरानी बेहद कमजोर है, जिससे जवाबदेही की कमी साफ नजर आती है।
यूरोपीय संघ में कड़े नियम लागू
दूसरी तरफ यूरोपीय संघ में चुनावी विज्ञापनों पर कड़े नियम लागू किए गए हैं और वहां राजनीतिक या सामाजिक मुद्दों पर विज्ञापन पूरी तरह प्रतिबंधित हैं। जबकि अमेरिका में मेटा चुनावी हस्तक्षेप रोकने के लिए विशेष निगरानी तंत्र चलाता है। भारत में इस तरह की पारदर्शिता अभी दूर है।
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बिहार चुनावों के अनुभव से यह साफ है कि सोशल मीडिया अब सिर्फ प्रचार का माध्यम नहीं, बल्कि चुनावी अर्थव्यवस्था का नया हथियार बन चुका है और इस पर नियंत्रण की जिम्मेदारी अब चुनाव आयोग और मेटा दोनों पर है।



