
UP Politics. बिहार विधानसभा चुनाव के साथ ही यूपी में 2027 के चुनाव को लेकर सुगबुगाहट तेज हो गई है। यहां भी राजनीतिक गलियारों में एक सवाल जोर पकड़ने लगा है कि क्या समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव, कांग्रेस के लिए संजीवनी साबित हो सकते हैं? या फिर यह गठबंधन बनने से पहले ही बिखर जाएगा? यूपी की राजनीति के इस नए समीकरण में सियासी गणित और जमीनी हकीकत दोनों बराबर की चुनौती पेश कर रहे हैं।
2017 का विधानसभा चुनाव याद कीजिए, जब अखिलेश यादव और राहुल गांधी यूपी को साथ पसंद है के नारे के साथ मंच साझा कर रहे थे। सपा ने तब 298 सीटों पर चुनाव लड़ा, जबकि कांग्रेस को 105 सीटें मिलीं। नतीजा – सपा 47 सीटों तक सिमटी, कांग्रेस महज 7 सीटें जीत सकी। भाजपा ने 312 सीटें जीतकर रिकॉर्ड बहुमत हासिल किया। यह गठबंधन इस बात का प्रतीक बन गया कि केवल चेहरों के मेल से यूपी की जातीय और सामाजिक बिसात नहीं जीती जा सकती है।
2019 के लोकसभा चुनाव में में अखिलेश यादव ने कांग्रेस को साथ लेने के बजाय बसपा प्रमुख मायावती के साथ हाथ मिलाया। महागठबंधन का लक्ष्य भाजपा को रोकना था, लेकिन परिणाम उम्मीद से बहुत नीचे रहा। सपा को 5, बसपा को 10 और कांग्रेस को सिर्फ रायबरेली की 1 सीट मिली। यह स्पष्ट संकेत था कि जब तक सामाजिक जड़ों में भरोसा और मतदाताओं में स्वीकार्यता नहीं होगी, तब तक सीट ट्रांसफर की राजनीति कारगर नहीं हो सकती।
2022 में अखिलेश यादव ने अकेले मैदान में उतरने का जोखिम उठाया। परिणाम भले सत्ता तक न पहुंचा सके, लेकिन सपा ने भाजपा को कड़ी चुनौती दी। सपा गठबंधन को 125 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा को 255। कांग्रेस का प्रदर्शन फिर निराशाजनक रहा – महज 2 सीटों तक सिमटी। वहीं, लोकसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस और सपा गठबंधन ने बेहतर परिणाम हासिल किया है। सपा और कांग्रेस के गठबंधन ने 43 सीटें जीतीं और 43.52 फीसदी वोट हासिल किए। वहीं, एनडीए ने 36 सीटें जीतीं और 43.69 फीसदी वोट हासिल किए। ये आंकड़े बताते हैं कि सपा की जमीनी पकड़ अब भी मजबूत है, जबकि कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा बेहद कमजोर हो चुका है। कांग्रेस के लिए सपा की लोकप्रियता संजीवनी बन सकती है, लेकिन सपा के लिए कांग्रेस एक राजनीतिक बोझ साबित भी हो सकती है।
कांग्रेस अपनी खोई ज़मीन वापस पाने में जुटी
अब बिहार चुनाव के बीच यूपी में चुनाव-2027 को लेकर चर्चा शुरू हो गई है। यहां कांग्रेस अपनी खोई ज़मीन वापस पाने और खुद को राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य विपक्ष के रूप में साबित करने की कोशिश करेगा। इसके लिए उसे सपा जैसे मजबूत साथी की जरूरत है। ऐसे में कांग्रेस चाहती है कि यूपी में वह सपा के साथ बराबर की साझेदार यानी 50-50, लेकिन सपा इसके लिए तैयार नहीं होगी। सपा का तर्क है कि कांग्रेस, अब केवल रायबरेली और अमेठी तक ही सीमित रह गई है। इसलिए कांग्रेस को 50 से 60 सीटों से ज्यादा हिस्सेदारी नहीं दी जा सकती। हालांकि माना जा रहा है कि कांग्रेस, 2024 के लोकसभा चुनाव का हवाला दे सकती है कि यूपी में उसे 6.4 फीसदी मिला है, इसलिए उसे सम्मानजनक साझेदारी मिलनी चाहिए।
इस बीच बसपा प्रमुख मायावती ने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेंगी। बसपा स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ेगी और दलित वोट बैंक पर अपना अधिकार बनाए रखेगी। यह रुख सपा और कांग्रेस दोनों के लिए चुनौती साबित होने वाला है। क्योंकि भाजपा को रोकने के लिए विपक्ष को मुस्लिम, दलित और पिछड़े वर्ग के समर्थन की जरूरत होगी, पर बसपा की अलग राह इस समीकरण को कमजोर बनाती है।
भारतीय जनता पार्टी भी भलीभांति जानती है कि यदि विपक्ष एकजुट हुआ तो नुकसान संभव है। इसलिए सीएम योगी आदित्यनाथ लगातार यह प्रचार कर रहे हैं कि विपक्ष केवल परिवारवाद की राजनीति करता है, जबकि भाजपा राष्ट्रवाद और विकास की राजनीति का प्रतीक है।
गठबंधन करें तो नुकसान, न करें तो और नुकसान
अखिलेश यादव फिलहाल एक मुश्किल मोड़ पर हैं। यदि कांग्रेस के साथ गठबंधन करते हैं, तो सपा कार्यकर्ता असंतोष जता सकते हैं, 2017 की हार अभी तक याद है। अगर अकेले लड़ते हैं, तो विपक्षी वोटों का बंटवारा भाजपा को फायदा पहुंचा सकता है। बसपा के अलग चुनाव लड़ने से मुस्लिम-दलित समीकरण भी कमजोर पड़ेगा। यानी अखिलेश के लिए स्थिति वैसी है – गठबंधन करें तो नुकसान, न करें तो और नुकसान।
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राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के लिए उत्तर प्रदेश सिर्फ एक राज्य नहीं, बल्कि कांग्रेस के पुनर्जीवन का प्रतीक है। यदि पार्टी यूपी में सम्मानजनक प्रदर्शन करती है, तो लोकसभा चुनाव 2029 तक उसका मनोबल और संगठन दोनों मजबूत होंगे। इसीलिए कांग्रेस यूपी में एक भरोसेमंद सहयोगी तलाश रही है और उसे लगता है कि अखिलेश यादव वही संजीवनी हो सकते हैं।
त्रिकोणीय बनाकर सियासी पहचान तलाश रही कांग्रेस
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यूपी में कांग्रेस, त्रिकोणीय बनाकर अपनी सियासी पहचान तलाश रही है। पर सवाल यह है कि क्या यह गठबंधन वाकई संजीवनी बनेगा या एक और राजनीतिक भ्रम साबित होगा?
आगामी चुनाव 2027 में अखिलेश और राहुल का प्रस्तावित गठबंधन अब उसी अग्निपरीक्षा से गुजरने वाला है, जहां फैसला सिर्फ एक तय करेगा। क्या यह गठबंधन नई ऊर्जा लाएगा या दोहराएगा 2017 की हार का इतिहास?



