
2006 Mumbai Train Blast Case: 11 जुलाई 2006 की शाम मुंबई के लोकल ट्रेन नेटवर्क में सात सिलसिलेवार धमाकों ने पूरे देश को हिला दिया था। खचाखच भरी ट्रेनों में हुए इन विस्फोटों में 189 लोगों की जान चली गई थी और 800 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। ये धमाके महज 11 मिनट के अंदर सात अलग-अलग स्थानों पर हुए थे — जिनमें खार-सांताक्रूज़, बांद्रा-खार, जोगेश्वरी, माहिम, मीरा रोड-भायंदर, माटुंगा-माहिम और बोरीवली स्टेशन शामिल थे।
हाईकोर्ट का बड़ा फैसला: सबूत नाकाफी, सभी 12 आरोपी बरी
लगभग दो दशक बाद, बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस बहुचर्चित मामले में एक बड़ा और चौंकाने वाला फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ मामला साबित करने में पूरी तरह विफल रहा। इसके चलते कोर्ट ने 12 आरोपियों को बरी कर दिया, जिन्हें पहले दोषी ठहराया गया था।
इनमें से पांच को विशेष अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी, जबकि सात को उम्रकैद मिली थी। हाईकोर्ट ने इन सभी सजाओं को रद्द करते हुए सभी को बेगुनाह करार दिया।
गवाहों और सबूतों पर कोर्ट ने जताई शंका
हाईकोर्ट की विशेष बेंच — जस्टिस अनिल किलोर और जस्टिस श्याम चांदक — ने अपने फैसले में कहा कि:
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अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान अविश्वसनीय थे।
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धमाके के 100 दिन बाद आरोपियों की पहचान करना मुश्किल था और इस पर यकीन नहीं किया जा सकता।
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टैक्सी ड्राइवरों और ट्रेन यात्रियों की गवाही में कई विरोधाभास थे।
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बम, बंदूक, नक्शे जैसी वस्तुओं की बरामदगी को कोर्ट ने अपर्याप्त और संदिग्ध माना।
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अभियोजन पक्ष यह तक साबित नहीं कर पाया कि धमाकों में किस प्रकार के विस्फोटक का प्रयोग हुआ था।
जांच में खामियां, कोर्ट ने बताया “कमजोर केस”
कोर्ट ने माना कि सबूतों की कड़ियाँ आपस में नहीं जुड़तीं, और यह स्पष्ट नहीं था कि आरोपियों का सीधा संबंध धमाकों से था। कोर्ट ने फैसले में यह भी कहा कि यह केस कई स्तरों पर कमजोर था और अभियोजन की ओर से न्यायिक प्रक्रिया की कसौटी पर खरा नहीं उतरा।
क्या था मामला?
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इस केस की जांच ATS (एंटी टेररिज्म स्क्वॉड) को सौंपी गई थी।
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सभी आरोपी UAPA (गैरकानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम) और अन्य गंभीर धाराओं के तहत आरोपित किए गए थे।
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2015 में निचली अदालत ने 13 में से 12 लोगों को दोषी करार दिया था।
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वाहिद शेख को उस समय बरी किया गया था।
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अब, 2025 में हाईकोर्ट ने बाकी 12 लोगों को भी बरी कर दिया है।
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क्या आगे होगी अपील?
इस फैसले के बाद संभावना है कि महाराष्ट्र सरकार और केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपील करें। हालांकि, फिलहाल हाईकोर्ट के फैसले से यह साफ है कि 19 साल की कानूनी लड़ाई के बाद भी न्यायिक प्रक्रिया में सवाल उठ खड़े हुए हैं। यह फैसला एक बार फिर भारतीय न्याय व्यवस्था में जांच एजेंसियों की भूमिका, सबूतों की विश्वसनीयता और गवाहों की सुरक्षा एवं प्रशिक्षण को लेकर गंभीर बहस खड़ी कर रहा है।