
Caste Census: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जाति जनगणना को हरी झंडी देकर देश की राजनीति में एक बड़ा मोड़ ला दिया है। यह फैसला न केवल सामाजिक नीति के लिहाज से अहम है, बल्कि रणनीतिक रूप से विपक्ष, खासकर कांग्रेस और राहुल गांधी के मुख्य एजेंडे को कमजोर करता नजर आ रहा है। लंबे समय से राहुल गांधी जातिगत जनगणना की मांग को लेकर बीजेपी पर हमलावर थे और इसे ‘सामाजिक न्याय’ का आधार बताते रहे थे। लेकिन अब एनडीए सरकार के इस कदम ने सियासी समीकरणों को तेजी से बदलने की नींव रख दी है।
जाति जनगणना क्या है और क्यों है जरूरी?
जाति जनगणना का उद्देश्य समाज में मौजूद विभिन्न जातियों की संख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का पता लगाना है। अब तक केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का ही डेटा संग्रह किया जाता था, लेकिन पिछड़ा वर्ग (OBC) और अन्य वर्गों के बारे में ठोस जानकारी नहीं थी।
विपक्ष का कहना है कि जब तक सटीक आंकड़े सामने नहीं आते, तब तक पिछड़े वर्गों को उनके अधिकार और प्रतिनिधित्व नहीं मिल सकते। इसी आधार पर राहुल गांधी ने ‘जाति बताओ’ अभियान की शुरुआत की थी और बार-बार यह वादा किया था कि उनकी सरकार बनी तो आरक्षण की 50% सीमा को तोड़ते हुए सभी को न्याय दिलाया जाएगा।
अब मोदी सरकार ने इसी दिशा में कदम बढ़ाकर विपक्ष से उनका सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा छीन लिया है।
जाति जनगणना के संभावित फायदे
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सटीक सामाजिक आंकड़े उपलब्ध होंगे – जातिगत वितरण को समझकर नीतियां अधिक लक्ष्यित और प्रभावशाली बन सकेंगी।
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वंचित वर्गों को लाभ – वे जातियां जिन्हें अब तक आरक्षण का लाभ नहीं मिला, उन्हें मुख्यधारा में लाया जा सकेगा।
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आरक्षण नीति की समीक्षा का आधार – आंकड़ों के आधार पर आरक्षण का दायरा बढ़ाने या संशोधित करने की संभावना।
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सामाजिक न्याय की दिशा में बड़ा कदम – सामाजिक समानता की दिशा में नीतिगत सुधार संभव होंगे।
संभावित नुकसान या चुनौतियां
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जातिगत ध्रुवीकरण का खतरा – जातियों की पहचान को प्रमुखता मिलने से समाज में खिंचाव बढ़ सकता है।
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राजनीतिक स्वार्थ हावी हो सकते हैं – डेटा का इस्तेमाल वोटबैंक की राजनीति के लिए किया जा सकता है।
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राष्ट्रीय एकता पर असर – क्षेत्रीय और जातीय मांगों के बढ़ने से समरसता पर खतरा मंडरा सकता है।
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नीतिगत दबाव – सरकार पर हर वर्ग को संतुष्ट करने का दबाव बढ़ेगा, जिससे प्रशासनिक संतुलन बिगड़ सकता है।
बिहार में जाति जनगणना का सियासी प्रभाव
बिहार में जाति आधारित राजनीति की गहरी जड़ें हैं और वहां इस फैसले का सीधा असर चुनावों पर पड़ सकता है।
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एनडीए को पिछड़े वर्गों में बढ़त मिल सकती है, जो अब तक क्षेत्रीय दलों या कांग्रेस के साथ रहे हैं।
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आरजेडी और कांग्रेस को नई रणनीति बनानी होगी, क्योंकि उनका प्रमुख मुद्दा अब केंद्र सरकार ने अपना बना लिया है।
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जेडीयू और बीजेपी का गठबंधन मजबूत होगा, क्योंकि नीतीश कुमार पहले से जाति जनगणना के समर्थक रहे हैं।
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ओबीसी और ईबीसी वोट बैंक पर सीधा प्रभाव, जो राज्य की कुल आबादी का 63% है — यह बीजेपी को बड़ा फायदा दिला सकता है।
अब आगे क्या?
मोदी सरकार के इस फैसले से सामाजिक न्याय की राजनीति में नया मोड़ आ गया है। राहुल गांधी को अब अपने ‘जाति बताओ’ अभियान के लिए नए नैरेटिव और रणनीति तैयार करनी होगी। इस फैसले के बाद देश के अन्य राज्यों में भी जाति जनगणना की मांग तेज हो सकती है, और इससे आरक्षण, प्रतिनिधित्व और सामाजिक नीति पर नई बहस शुरू होगी।
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केंद्र सरकार के इस कदम से यह संकेत भी मिलता है कि आने वाले वर्षों में सामाजिक नीति को नई दिशा दी जा सकती है — जिसमें जातिगत आंकड़ों के आधार पर योजनाएं और संसाधनों का वितरण तय किया जाएगा।